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________________ उत्तरखण्ड ] .ऋषिपञ्चमी-व्रतकी कथा, विधि और महिमा . लिये परोसा; साथ ही विधिपूर्वक पिण्डदानकी पूर्ति इसको खाते ही मर जायेंगे। यो विचारकर मैं स्वयं करनेवाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिताका चिन्तन उस दूधको पीने लगी। इतनेमे बहूकी दृष्टि मुझपर पड़ करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके वस्त्र, गयी। उसने मुझे खूब मारा। मेरा अङ्ग-भङ्ग हो गया दक्षिणा और ताम्बूल निवेदन किये। फिर उन सबको है। इसीसे मैं लड़खड़ाती हुई चल रही हूँ। क्या करूँ, विदा किया। वे सभी ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले बहुत दुःखी हूँ।' गये। तत्पश्चात् अपने सगोती, बन्धु-बान्धव तथा और कुतियाके दुःखका अनुभव करके बैलने भी उससे भी जो लोग भूखे थे, उन सबको ब्राह्मणने विधिपूर्वक कहा-'अब मैं अपने दुःखका कारण बताता हूँ, सुनो; भोजन दिया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होनेपर मैं पूर्वजन्ममें इस ब्राह्मणका साक्षात् पिता था। आज ब्राह्मण जब कुटीके दरवाजेपर बैठे, उस समय उनके इसने ब्राह्मणोंको भोजन कराया और प्रचुर अन्नका दान घरको कुतिया और बैल दोनों परस्पर कुछ यातचीत किया है किन्तु मेरे आगे इसने घास और जलतक नहीं करने लगे। देवि ! बुद्धिमान् ब्राह्मणने उन दोनोंकी बातें रखा। इसी दुःखसे मुझे आज बहुत कष्ट हुआ है। उन सुनी और समझीं। फिर मन-ही-मन वे इस प्रकार सोचने दोनोंका यह कथानक सुनकर मुझे रातभर नींद नहीं लगे-'ये साक्षात् मेरे पिता है, जो मेरे ही घरके पशु आयी। मुनिश्रेष्ठ ! मुझे तभीसे बड़ी चिन्ता हो रही है। हुए हैं तथा यह भी साक्षात् मेरी माता है, जो दैवयोगसे मैं वेदका स्वाध्याय करनेवाला है. वैदिक काँक कुतिया हो गयी है। अब मैं इनके उद्धारके लिये निश्चित अनुष्ठानमें कुशल हैं। फिर भी मेरे माता और पिताको रूपसे क्या करूं?' इसी विचारमे पड़े-पड़े ब्राह्मणको महान् दुःख सहन करना पड़ रहा है। इसके लिये मैं क्या रातभर नींद नहीं आयी। वे भगवान् विश्वेश्वरका स्मरण करूं? यही सोचता-विचारता आपके पास आया हूँ। करते रहे। प्रातःकाल होनेपर वे ऋषियोंके समीप गये। आप ही मेरा कष्ट दूर कीजिये। वहाँ वसिष्ठजीने उनका भलीभाँति स्वागत किया। ऋषि बोले-ब्रह्मन् ! उन दोनोंने पूर्वजन्ममें जो वसिष्ठजी बोले-ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने आनेका कर्म किया है, उसे सुनो-ये तुम्हारे पिता परम सुन्दर कारण बताओ। कुण्डिननगरमें श्रेष्ठ ब्राह्मण रहे हैं। एक समय भादोंके ब्राह्मण बोले-मुनिवर ! आज मेरा जन्म सफल महीने में पञ्चमी तिथि आयी थी, तुम्हारे पिता अपने हुआ तथा आज मेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ सफल हो गयीं; पिताके श्राद्ध आदिमें लगे थे, इसलिये उन्हें पञ्चमीके क्योंकि इस समय मुझे आपका दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ प्रतका ध्यान न रहा। उनके पिताकी क्षयाह तिथि थी। है। अब मेरा समाचार सुनिये। आज मैंने शास्त्रोक्त उस दिन तुम्हारी माता रजस्वला हो गयी थी, तो भी उसने विधिसे श्राद्ध किया, ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा ब्राह्मणोंके लिये सारा भोजन स्वयं ही तैयार किया। समस्त कुटुम्बके लोगोंको भी भोजन दिया है। सबके रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डाली, दूसरे दिन भोजनके पश्चात् एक कुतिया आयी और मेरे घरमें जहाँ ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिनके समान अपवित्र एक बैल रहता है, वहाँ जा उसे पतिरूपसे सम्बोधित बतायी गयी है; चौथे दिन स्नानके बाद उसकी शुद्धि करके इस प्रकार कहने लगी- 'स्वामिन् ! आज जो होती है । तुम्हारी माताने इसका विचार नहीं किया, अतः घटना घटी है, उसे सुन लीजिये। इस घरमें जो दूधका उसी पापसे उसको अपने ही घरको कुतिया होना पड़ा है वर्तन रखा हुआ था, उसे साँपने अपना जहर उगलकर तथा तुम्हारे पिता भी इसी कर्मसे बैल हुए हैं। दूषित कर दिया। यह मैंने अपनी आँखों देखा था। ब्राह्मणने कहा-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले देखकर मेरे मनमें बड़ी चिन्ता हुई। सोचने लगी-इस मुने ! मुझे कोई ऐसा व्रत, दान, यज्ञ और तीर्थ बतलाइये, दूधसे जब भोजन तैयार होगा, उस समय सव ब्राह्मण जिसके सेवनसे मेरे माता-पिताकी मुक्ति हो जाय ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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