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________________ सृष्टिखण्ड ] . श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति . गोपियोंके हितके लिये तुलसीका सेवन किया। ब्रह्महत्या भी दूर हो जाती है। तुलसीके पत्तेसे टपकता जगत्प्रिया तुलसी! पूर्वकालमें वसिष्ठजीके कथनानुसार हुआ जल जो अपने सिरपर धारण करता है, उसे गङ्गाश्रीरामचन्द्रजीने भी राक्षसोंका वध करनेके उद्देश्यसे स्नान और दस गोदानका फल प्राप्त होता है। देवि ! सरयूके तटपर तुम्हें लगाया था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें मुझपर प्रसन्न होओ। देवेश्ररि ! हरिप्रिये ! मुझपर प्रसन्न प्रणाम करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीसे वियोग हो जानेपर हो जाओ। क्षीरसागरके मन्थनसे प्रकट हुई तुलसीदेवि ! अशोकवाटिकामें रहते हुए जनककिशोरी सीताने तुम्हारा मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। ही ध्यान किया था, जिससे उन्हें पुनः अपने प्रियतमका द्वादशीकी रात्रि जागरण करके जो इस तुलसीसमागम प्राप्त हुआ। पूर्वकालमें हिमालय पर्वतपर स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् श्रीविष्णु उसके बत्तीस भगवान् शङ्करकी प्राप्तिके लिये पार्वतीदेवीने तुम्हें लगाया अपराध क्षमा करते हैं। बाल्यावस्था, कुमारावस्था, और अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये तुम्हारा सेवन किया जवानी और बुढ़ापेमें जितने पाप किये होते हैं, वे सब था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। सम्पूर्ण तुलसी-स्तोत्रके पाठसे नष्ट हो जाते हैं। तुलसीके स्तोत्रसे देवाङ्गनाओं और किन्नरोंने भी दुःस्वप्रका नाश करनेके सन्तुष्ट होकर भगवान् सुख और अभ्युदय प्रदान करते हैं। लिये नन्दनवनमें तुम्हारा सेवन किया था। देवि! तुम्हें जिस घरमें तुलसीका स्तोत्र लिखा हुआ विद्यमान रहता है, मेरा नमस्कार है। धर्मारण्य गयामें साक्षात् पितरोने उसका कभी अशुभ नहीं होता, उसका सब कुछ मङ्गलतुलसीका सेवन किया था। दण्डकारण्यमें भगवान् मय होता है, किञ्चित् भी अमङ्गल नहीं होता । उसके लिये श्रीरामचन्द्रजीने अपने हित-साधनकी इच्छासे परम सदा सुकाल रहता है। वह घर प्रचुर धन-धान्यसे भर पवित्र तुलसीका वृक्ष लगाया तथा लक्ष्मण और सीताने रहता है। तुलसी-स्तोत्रका पाठ करनेवाले मनुष्यके भी बड़ी भक्तिके साथ उसे पोसा था। जिस प्रकार हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुके प्रति अविचल भक्ति होती है। शास्त्रोंमें गङ्गाजीको त्रिभुवनव्यापिनी कहा गया है, उसी तथा उसका वैष्णवोंसे कभी वियोग नहीं होता । इतना ही प्रकार तुलसीदेवी भी सम्पूर्ण चराचर जगत्में दृष्टिगोचर नहीं, उसकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं प्रवृत्त होती। जो होती हैं। तुलसीका ग्रहण करके मनुष्य पातकोंसे मुक्त द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके तुलसी-स्तोत्रका पाठ हो जाता है। और तो और, मुनीश्वरो ! तुलसीके सेवनसे करता है, उसे करोड़ों तीर्थोक सेवनका फल प्राप्त होता है। श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति ब्राह्मण बोले-गुरुदेव ! अब आप हमें कोई कीर्तनसे अतिपातक और दर्शनसे भारी-भारी पाप ऐसा तीर्थ बतलाइये, जहाँ डुबकी लगानेसे निश्चय ही (महापातक) भी नष्ट हो जाते हैं। गङ्गाजीमें स्नान, समस्त पाप तथा दूसरे-दूसरे महापातक भी नष्ट हो जलपान और पितरोंका तर्पण करनेसे महापातकोंकी जाते हैं। राशिका प्रतिदिन क्षय होता रहता है। जैसे अग्निका __ व्यासजी बोले-ब्राह्मणो ! अविलम्ब सद्गतिका संसर्ग होनेसे रूई और सूखे तिनके क्षणभरमें भस्म हो उपाय सोचनेवाले सभी स्त्री-पुरुषोंके लिये गङ्गाजी ही जाते हैं, उसी प्रकार गङ्गाजी अपने जलका स्पर्श होनेपर एक ऐसा तीर्थ हैं, जिनके दर्शनमात्रसे सारा पाप नष्ट हो मनुष्योंके सारे पाप एक ही क्षणमें दग्ध कर देती हैं।* जाता है। गङ्गाजीके नामका स्मरण करनेमात्रसे पातक, जो विधिपूर्वक सङ्कल्पवाक्यका उच्चारण करते हुए *गनेति स्मरणादेव क्षयं याति च पातकम्। कीर्तनादतिपापानि दर्शनाद् गुरुकल्मषम्॥ स्रानात् पानाच जाह्नव्या पितॄणां तर्पणात्तथा । महापातकवृन्दानि क्षयं यान्ति दिने दिने । अमिना दाते तूलं तृणं शुष्क क्षणाद् यथा । तथा गङ्गाजलस्पर्शात् पुंसां पापं दहेत् क्षणात् ॥ (६०।५-७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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