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________________ २८० . अचंयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण सागर, यज्ञ, गौ, ऋषि तथा सम्पूर्ण तीर्थ भी उस घरमें भोजन करते हैं तथा उसौसे उन्हें विशेष संतोष और मौजूद रहते है। पुण्यमयी पत्नीके सहयोगसे गृहस्थ- तृप्ति होती है। अतः पत्नीके बिना जो धर्म किया जाता है, धर्मका पालन अच्छे ढंगसे होता है। इस भूमण्डलमें वह निष्फल होता है। गृहस्थधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। वैश्य ! कृकलने पूछा-धर्म ! अब कैसे मुझे सिद्धि गृहस्थका घर यदि सत्य और पुण्यसे युक्त हो तो परम प्राप्त होगी और किस प्रकार मेरे पितरोंको बन्धनसे पवित्र माना गया है, वहाँ सब तीर्थ और देवता निवास छुटकारा मिलेगा? करते हैं। गृहस्थका सहारा लेकर सब प्राणी जीवन धारण धर्मने कहा-महाभाग ! अपने घर जाओ। करते हैं। गृहस्थ-आश्रमके समान दूसरा कोई उत्तम तुम्हारी धर्मपरायणा, पुण्यवती पत्नी सुकला तुम्हारे बिना आश्रम मुझे नहीं दिखायी देता ।* जिसके घरमें साध्वी बहुत दुःखी हो गयी थी; उसे सान्त्वना दो और उसीके स्त्री होती है, उसके यहाँ मन्त्र, अग्रिहोत्र, सम्पूर्ण देवता, हाथसे श्राद्ध करो। अपने घरपर ही पुण्यतीर्थोका स्मरण सनातन धर्म तथा दान एवं आचार सब मौजूद रहते हैं। करके तुम श्रेष्ठ देवताओंका पूजन करो, इससे तुम्हारी इसी प्रकार जो पत्नीसे रहित है, उसका घर-जंगलके की हुई तीर्थ यात्रा सफल हो जायगी। समान है। वहाँ किये हुए यज्ञ तथा भाँति-भाँतिके दान “भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन्! यों सिद्धिदायक नहीं होते। साध्वी पत्नीके समान कोई तीर्थ कहकर धर्म जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये; परम नहीं है, पत्रीके समान कोई सुख नहीं है तथा संसारसे बुद्धिमान् कृकल भी अपने घर गये और पतिव्रता तारनेके लिये और कल्याण-साधनके लिये पत्नीके समान पत्नीको देखकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए । सुकलाने कोई पुण्य नहीं है। जो अपनी धर्मपरायणा सती नारीको स्वामीको आया देख उनके शुभागमनके उपलक्ष में छोड़कर चला जाता है, वह मनुष्योंमें अधम है। माङ्गलिक कार्य किया। तत्पश्चात् धर्मात्मा वैश्यने धर्मकी गृह-धर्मका परित्याग करके तुम्हे धर्मका फल कहाँ सारी चेष्टा बतलायी। स्वामीके आनन्ददायक वचन मिलेगा। अपनी पत्नीको साथ लिये बिना जो तुमने सुनकर महाभागा सुकलाको बड़ा हर्ष हुआ। उसके बाद तीर्थमें श्राद्ध और दान किया है, उसी दोषसे तुम्हारे पूर्वज कृकलने घरपर ही रहकर पत्नीके साथ श्रद्धापूर्वक श्राद्ध बाँधे गये हैं। तुम चोर हो और तुम्हारे ये पितर भी चोर और देवपूजन आदि पुण्यकर्मका अनुष्ठान किया। इससे हैं; क्योंकि इन्होंने लोलुपतावश तुम्हारा दिया हुआ प्रसन्न होकर देवता, पितर और मुनिगण विमानोंके द्वारा श्राद्धका अन्न खाया है। तुमने श्राद्ध करते समय अपनी वहाँ आये और महात्मा कृकल और उसकी महानुभावा पत्नीको साथ नहीं रखा था। जो सुयोग्य पुत्र श्रद्धासे युक्त पत्री दोनोंकी सराहना करने लगे। मैं, ब्रह्मा तथा हो अपनी पत्नीके दिये हुए पिण्डसे श्राद्ध करता है, उससे महादेवजी भी अपनी-अपनी देवीके साथ वहाँ गये। पितरोंको वैसी ही तृप्ति होती है, जैसी अमृत पीनेसे- सम्पूर्ण देवता उस सतीके सत्यसे सन्तुष्ट थे। सबने उन इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पत्नी ही गार्हस्थ्य-धर्मकी दोनों पति-पत्नीसे कहा-'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो, स्वामिनी है। उसके बिना ही जो तुमने शुभ कर्मोका तुम अपनी पत्नीके साथ वर माँगो।' । अनुष्ठान किया है, यह स्पष्ट ही तुम्हारी चोरी है। जब पत्नी कृकलने पूछा-देववरो ! मेरे किस पुण्य और अपने हाथसे अन्न तैयार करके देती है, तो वह अमृतके तपके प्रसङ्गसे पत्नीसहित मुझे वर देनेको आपलोग समान मधुर होता है। उसी अन्नको पितर प्रसन्न होकर पधारे हैं? * गार्हस्थ्यं च समाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः । तादृशं नैव पश्यामि शन्यमाश्रममुत्तमम्।। (५९ ॥ १९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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