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________________ ७३८ • अवस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिम पद्मपुराण वस्तुओंसे भिन्नरूपमें स्थित माना गया है, वह परमात्मा अवस्थाको, कालान्तरमें होनेवाली अवस्थाको, भूत, ही आगमका दूसरा लक्षण है। तात्पर्य यह कि साधन- भविष्य, वर्तमान और दूरको, स्थूल और सूक्ष्मको तथा भूत ज्ञान और साध्यस्वरूप ज्ञेय दोनों ही आगम हैं। वह अन्य ज्ञातव्य बातोंको यथार्थरूपसे देख पाते हैं। इसके ज्ञेय परमात्मा योगियोंद्वारा ध्यान करनेयोग्य है । परमार्थसे विपरीत जिनकी बुद्धि मन्द और अन्तःकरण दूषित है विमुख मनुष्योंद्वारा उसका ज्ञान होना असम्भव है। तथा जिनका स्वभाव कुतर्क और अज्ञानसे दुष्ट हो रहा भिन्न-भिन्न बुद्धियोंसे वह यद्यपि भिन्न-सा लक्षित होता है, ऐसे लोगोंको सब कुछ उलटा ही प्रतीत होता है। है, तथापि आत्मासे भिन्न नहीं है । तात पुण्डरीक ! ध्यान नारदजी कहते हैं-पुण्डरीक ! अब मैं दूसरा देकर सुनो। सुव्रत ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मेरे पूछनेपर प्रसङ्ग सुनाता हूँ, इसे भी सुनो। पूर्वकालमें जगत्के जिस तत्वका उपदेश किया था, वही तुम्हें बतलाता हूँ। कारणभूत ब्रह्माजीने ही इसका भी उपदेश किया था। एक समय अज, अविनाशी पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें एक बार इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषियोंके विराजमान थे। उस समय मैंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्माजीने उनके प्रणाम करके पूछा-'ब्रहान् ! कौन-सा ज्ञान सबसे हितकी बात इस प्रकार बतायी थी। उत्तम बताया गया है ? तथा कौन-सा योग सर्वश्रेष्ठ माना गया है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये।' ब्रह्माजीने कहा-तात ! सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका श्रवण करो। यह थोड़े-से वाक्योंमें कहा गया है, किन्तु इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। इसकी उपासनामें कोई केश या परिश्रम नहीं है। जिन्हें गुरु-परम्परासे पञ्चविंशक' पुरुष बतलाया गया है, वे ही सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा है; इसलिये उन्हींको सम्पूर्ण जगत्के निवासरूप सनातन परमात्मा नारायण कहा जाता है। वे ही संसारको सृष्टि, संहार और पालनमें लगे रहते हैं। ब्रह्मन् ! ब्रह्मा, शिव और विष्णु-इन तीनों रूपोंमें एक ही देवाधिदेव सनातन पुरुष विराज रहे हैं। अपना हित चाहनेवाले पुरुषको सदा उन्हींकी आराधना करनी चाहिये। जो निःस्पृह, नित्य संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय, ममता-अहङ्कारसे रहित, राग-द्वेषसे शून्य, शान्तचित्त और सब प्रकारकी आसक्तियोंसे पृथक् हो ध्यानयोगमें प्रवृत्त रहते हैं, वे ही उन अक्षय जगदीश्वरको ब्रह्माजीने कहा-देवताओ! भगवान् नारायण देखते और प्राप्त करते हैं। जो लोग भगवान् नारायणकी ही सबके आश्रय हैं। सनातन लोक, यज्ञ तथा नाना शरण ग्रहण कर चुके हैं तथा जिनके मन-प्राण उन्हींके प्रकारके शास्त्रोंका भी पर्यवसान नारायणमें ही होता है। चिन्तनमें लगे हैं, वे ही ज्ञानदृष्टिसे संसारको वर्तमान छहो अङ्गोसहित वेद तथा अन्य आगम सर्वव्यापी १. पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियोंके विषय, मन, पांच भूत, आकार, महतत्व और प्रकृति-ये चौबीस तत्त्व हैं, इनसे भिन्न सर्वज्ञ परमात्मा पश्चीसवाँ तत्व है इसलिये वह 'पञ्चविंशक' कहलाता है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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