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________________ उत्तरखण्ड ] • कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार . ....... सौराष्ट्र नगरमें भिक्षु नामके एक ब्राह्मण रहते थे। मैं इसकी प्रवृत्ति रही है; इसलिये यह शूकरीको योनिमें उन्हींकी पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था। मैं बड़े भयंकर जन्म ले विष्ठाका भोजन करती हुई समय व्यतीत करे । स्वभावकी स्त्री थी। मैंने वचनसे भी कभी अपने पतिका जिस बर्तनमें भोजन बनाया जाता है, उसीमें यह हमेशा भला नहीं किया। उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा। खाया करती थी; अतः उस दोषके प्रभावसे यह अपनी मैं सदा उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन किया करती थी। ही संतानका भक्षण करनेवाली बिल्ली हो । तथा अपने कलह मुझे विशेष प्रिय था। वे ब्राह्मण मुझसे सदा स्वामीको निमित्त बनाकर इसने आत्मघात किया है, अतः उद्विग्न रहा करते थे। अन्ततोगत्वा मेरे पतिने दूसरी स्त्रीसे यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री कुछ कालतक प्रेत-शरीरमें भी विवाह करनेका विचार कर लिया। तब मैंने विष खाकर निवास करे। दूतोंके साथ इसको यहाँसे मरुप्रदेशमें भेज अपने प्राण त्याग दिये। फिर यमराजके दूत आये और देना चाहिये। वहाँ चिरकालतक यह प्रेतका शरीर धारण मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोकमें ले गये। यमराजने करके रहे। इसके बाद यह पापिनी तीन योनियोका भी मुझे उपस्थित देख चित्रगुप्तसे पूछा-'चित्रगुप्त ! देखो कष्ट भोगेगी। तो सही, इसने कैसा कर्म किया है ? इसे शुभकर्मका कलहा कहती है-विप्रवर ! मैं वही पापिनी फल मिलेगा या अशुभकर्मका?' कलहा हूँ, प्रेतके शरीरमें आये मुझे पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। मैं सदा ही अपने कर्मसे दुःखित तथा भूख-प्याससे पीड़ित रहा करती हूँ। एक दिन भूखसे पीड़ित होकर मैंने एक बनियेके शरीरमे प्रवेश किया और उसके साथ दक्षिण देशमे कृष्णा और वेणीके सङ्गमपर आयी। आनेपर ज्यों ही सङ्गमके किनारे खड़ी हुई, त्यों ही उस बनियेके शरीरसे भगवान् शिव और विष्णुके पार्षद निकले और उन्होंने मुझे बलपूर्वक दूर भगा दिया। द्विजश्रेष्ठ ! तबसे मैं भूखका कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही थी। इतनेमें ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ी। आपके हाथसे तुलसीमिश्रित जलका संसर्ग पाकर अब मेरे पाप नष्ट हो गये। विप्रवर ! मुझपर कृपा कीजिये और बताइये, मैं इस प्रेत-शरीरसे और भविष्य में प्राप्त होनेवाली भयंकर तीन योनियोंसे किस प्रकार मुक्त होऊँगी? नारदजी कहते हैं-कलहाके ये वचन सुनकर CC द्विजश्रष्ठ धमदतका द्विजश्रेष्ठ धर्मदत्तको उसके कौके परिणामका विचार चित्रगुप्तने कहा-धर्मराज ! इसने तो कोई भी करके बड़ा विस्मय और दुःख हुआ। उसकी ग्लानि शुभकर्म नहीं किया है। यह स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती थी देखकर उनका हृदय करुणासे द्रवित हो उठा। वे बहुत और अपने स्वामीको उसमेंसे कुछ भी नहीं देती थी। देरतक सोच-विचारकर खेदके साथ बोलेअतः बल्गुली (चमगादर) की योनिमें जन्म लेकर यह धर्मदत्तने कहा-तीर्थ, दान और व्रत आदि शुभ अपनी विष्ठा खाती हुई जीवन धारण करे। इसने सदा साधनोंके द्वारा पाप नष्ट होते हैं; किन्तु तुम इस समय अपने स्वामीसे द्वेष किया है तथा सर्वदा कलहमें ही प्रेतके शरीरमें स्थित हो, अतः उन शुभ कर्मोम तुम्हारा
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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