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________________ सृष्टिखण्ड ] • सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य . तथा विलोमक्रमसे अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ सुखका भागी होता है। पुष्करमें तिल-दानकी मुनिलोग पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इसी प्रकार वह उक्त अधिक प्रशंसा करते हैं तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको तीनों पुष्करोंमेंसे किसी एकमें या सबमें नित्य स्रान वहाँ सदा ही स्नान करनेका विधान है। करता रहे। भीष्मजी! पुष्कर वनमें पहुँचकर सरस्वती नदीके पुष्कर क्षेत्रमें तीन सुन्दर शिखर और तीन ही स्रोत प्रकट होनेकी बात बतायी गयी। अब वह पुनः अदृश्य हैं। वे सब-के-सब पुष्कर नामसे ही प्रसिद्ध हैं। उन्हें होकर वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चली । पुष्करसे थोड़ी ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहते हैं। ही दूर जानेपर एक खजूरका वन मिला, जो फल और जो मन और इन्द्रियोंको वशमें करके सरस्वतीमें स्रान फूलोंसे सुशोभित था; सभी ऋतुओंके पुष्प उस करता और ब्राह्मणको एक उत्तम गौ दान देता है, वह वनस्थलीकी शोभा बढ़ा रहे थे, वह स्थान मुनियोंके भी शास्त्रीय आज्ञाके पालनसे शुद्धचित्त होकर अक्षय मनको मोहनेवाला था। वहाँ पहुँचकर नदियोंमें श्रेष्ठ लोकोंको पाता है। अधिक क्या कहें-जो रात्रिके समय सरस्वतीदेवी पुनः प्रकट हुई। वहाँ वे 'नन्दा'के नामसे भी स्रान करके वहाँ याचकको धन देता है, वह अनन्त तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुई। सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य सूतजी कहते हैं-यह सुनकर देवव्रत भीष्मने बनाया है। तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिये तू कच्चा पुलस्त्यजीसे पूछा-"ब्रह्मन् ! सरिताओंमें श्रेष्ठ नन्दा मांस खानेवाले पशुकी योनिमें पड़ेगा। इस कण्टकाकीर्ण कोई दूसरी नदी तो नहीं है? मेरे मनमें इस बातको वनमें तू व्याघ्र हो जा।। लेकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि सरस्वतीका नाम मृगीका यह शाप सुनकर सामने खड़े हुए राजाकी 'नन्दा' कैसे पड़ गया। जिस प्रकार और जिस कारणसे सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे हाथ जोड़कर वह 'नन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुई, उसे बतानेकी कृपा बोले-'कल्याणी ! मैं नहीं जानता था कि तू बच्चेको कीजिये।" भीष्मके इस प्रकार पूछनेपर पुलस्त्यजीने दूध पिला रही है, अनजानमें मैंने तेरा वध किया है। सरस्वतीका. 'नन्दा' नाम क्यों पड़ा, इसका प्राचीन अतः मुझपर प्रसन्न हो ! मैं व्याघ्रयोनिको त्यागकर पुनः इतिहास सुनाना आरम्भ किया। वे बोले-भीष्म ! मनुष्य-शरीरको कब प्राप्त करूँगा? अपने इस शापके पहलेकी बात है, पृथ्वीपर प्रभञ्जन नामसे प्रसिद्ध एक उद्धारकी अवधि तो बता दोम' राजाके ऐसा कहनेपर महावली राजा हो गये हैं। एक दिन वे उस वनमें मृगोंका मृगी बोली-'राजन् ! आजसे सौ वर्ष बीतनेपर यहाँ शिकार खेल रहे थे। उन्होंने देखा, एक झाड़ीके भीतर नन्दा नामकी एक गौ आयेगी। उसके साथ तुम्हारा मृगी खड़ी है। वह राजाके ठीक सामने पड़ती थी। वार्तालाप होनेपर इस शापका अन्त हो जायगा।' प्रभजनने अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चलाकर मृगीको बींध पुलस्त्यजी कहते हैं-मृगीके कथनानुसार राजा डाला । आहत हरिणीने चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात प्रभञ्जन व्याघ्र हो गये। उस व्याघ्रकी आकृति बड़ी ही किया। फिर हाथमें धनुष-बाण धारण किये राजाको घोर और भयानक थी। वह उस वनमें कालके वशीभूत खड़ा देख वह बोली-'ओ मूढ़ ! यह तूने क्या हुए मृगों, अन्य चौपायों तथा मनुष्योंको भी मार-मारकर किया? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुँह खाने और रहने लगा। वह अपनी निन्दा करते हुए किये खड़ी थी और निर्भय होकर अपने बच्चेको दूध कहता था, 'हाय ! अब मैं पुनः कब मनुष्य-शरीर धारण पिला रही थी। इसी अवस्था तूने इस वनके भीतर मुझ करूँगा? अबसे नीच योनिमें डालनेवाला ऐसा निन्दनीय निरपराध हरिणीको अपने वज्रके समान बाणका निशाना कर्म-महान् पाप नहीं करूंगा। अब इस योनिमें मेरे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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