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________________ स्वर्गखण्ड ] .धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन . ३५१ तरुण हुए तो उन्हें बड़ा अभिमान हो गया। वे धनके जाकर वे यमराजसे बोले-'धर्मराज ! आपकी आज्ञासे गर्वसे उन्मत्त हो उठे। उनका आचरण बिगड़ गया। वे हम इन दोनों मनुष्योंको ले आये हैं। अब आप प्रसन्न दुर्व्यसनोंमें आसक्त हो गये। धर्म-कर्मोकी ओर उनकी होकर अपने इन किङ्करोंको आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य दृष्टि नहीं जाती थी। वे माताकी आज्ञा तथा वृद्ध करें?' तब यमराजने दूतोंसे कहा-'वीरो ! एकको तो पुरुषोंका कहना नहीं मानते थे। दोनों ही दुरात्मा और दुःसह पीड़ा देनेवाले नरकमें डाल दो और दूसरेको कुमार्गगामी हो गये। वे अधर्ममें ही लगे रहते थे। उन स्वर्गलोकमें, जहाँ उत्तम-उत्तम भोग सुलभ है, स्थान दुष्टोंने परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार आरम्भ कर दिया। दो।' यमराजकी आज्ञा सुनकर शीघ्रतापूर्वक काम वे गाने-बजानेमें मस्त रहते और सैकड़ों वेश्याओंको करनेवाले दूतोंने वैश्यके ज्येष्ठ पुत्रको भयंकर रौरव साथ रखते थे। चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर 'हा-में-हाँ नरकमें डाल दिया। इसके बाद उनमेंसे किसी श्रेष्ठ दूतने मिलानेवाले चापलूस ही उनके सङ्गी थे। उन्हें मद्य दूसरे पुत्रसे मधुर वाणीमें कहा-'विकुण्डल ! तुम मेरे पीनेका चस्का लग गया था। इस प्रकार सदा साथ आओ, मैं तुम्हें स्वर्गमें स्थान देता हूँ। तुम भोगपरायण होकर पिताके धनका नाश करते हुए वे दोनों वहाँ अपने पुण्यकर्मद्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंका भाई अपने रमणीय भवनमें निवास करते थे। धनका उपभोग करो।' दुरुपयोग करते हुए उन्होंने वेश्याओं, गुंडों, नटों, मल्लों, यह सुनकर विकुण्डलके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। चारणों तथा बन्दियोंको अपना सारा धन लुटा दिया। मार्गमें अत्यन्त विस्मित होकर उसने दूतसे पूछाऊसरमें डाले हुए बीजकी भाँति सारा धन उन्होंने 'दूतप्रवर ! मैं आपसे अपने मनका एक सन्देह पूछ रहा अपात्रोंको ही दिया। सत्पात्रको कभी दान नहीं दिया, हूँ। हम दोनों भाइयोंका एक ही कुलमें जन्म हुआ। ब्राह्मणके मुखमें अन्नका होम नहीं किया तथा समस्त हमने कर्म भी एक-सा ही किया तथा दुर्मुत्यु भी हमारी भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले सर्वपापनाशक भगवान् एक-सी ही हुई; फिर क्या कारण है कि मेरे ही समान विष्णुको कभी पूजा नहीं की। कर्म करनेवाला मेरा बड़ा भाई नरकमें डाला गया और इस प्रकार उन दोनोंका धन थोड़े ही दिनोंमें समाप्त मुझे स्वर्गकी प्राप्ति हुई ? आप मेरे इस संशयका निवारण हो गया। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके घरमें ऐसी कीजिये । बाल्यकालसे ही मेरा मन पापोंमें लगा रहा। कोई भी वस्तु नहीं बची, जिससे वे अपना निर्वाह करते। पुण्य-कर्मोंमें कभी संलग्न नहीं हुआ। यदि आप मेरे द्रव्यके अभावमें समस्त स्वजनों, बान्धवों, सेवकों तथा किसी पुण्यको जानते हों तो कृपया बतलाइये।' आश्रितोंने भी उन्हें त्याग दिया। उस नगरमें उनकी बड़ी देवदूतने कहा-वैश्यवर ! सुनो। हरिमित्रके पुत्र शोचनीय स्थिति हो गयी। इसके बाद उन्होंने चोरी करना स्वमित्र नामक ब्राह्मण वनमें रहते थे। वे वेदोंके पारगामी आरम्भ किया। राजा तथा लोगोंके भयसे डरकर वे विद्वान् थे। यमुनाके दक्षिण किनारे उनका पवित्र आश्रम अपने नगरसे निकल गये और वनमें जाकर रहने लगे। था। उस वनमें रहते समय ब्राह्मणदेवताके साथ तुम्हारी अब वे सबको पीड़ा पहुँचाने लगे। इस प्रकार पापपूर्ण मित्रता हो गयी थी। उन्हींके सङ्गसे तुमने कालिन्दीके आहारसे उनकी जीविका चलने लगी। तदनन्तर, एक पवित्र जलमें, जो सब पापोंको हरनेवाला और श्रेष्ठ है, दिन उनमेंसे एक तो पहाड़पर गया और दूसरेने वनमें दो बार माघ-नान किया है। एक माघ-सानके पुण्यसे प्रवेश किया। राजन् ! उन दोनोंमें जो बड़ा था, उसे तुम सब पापोंसे मुक्त हो गये और दूसरेके पुण्यसे तुम्हें सिंहने मार डाला और छोटेको साँपने डस लिया। उन स्वर्गकी प्राप्ति हुई है। इसी पुण्यके प्रभावसे तुम सदा दोनों महापापियोंकी एक ही दिन मृत्यु हुई। इसके बाद स्वर्गमें रहकर आनन्दका अनुभव करो। तुम्हारा भाई यमदूत उन्हें पाशोंमें बाँधकर यमपुरीमें ले गये। वहाँ नरकमें बड़ी भारी यातना भोगेगा। असिपत्र-वनके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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