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________________ पातालखण्ड ] • अम्बरीष-नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण थ्यानका वर्णन . ५७९ ब्राह्मणोंके संतुष्ट होनेपर ही उन्हें भी संतोष होता है। जगतके प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभके ही मातृकुल और पितृकुल-दोनों कुलोंके पूर्वज वह सब कुछ वेद-शास्त्रोंके अनुकूल बोलता है। उसके चिरकालसे नरकमें डूबे हों तो भी जब उनका वंशधर त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि सब प्रकारके पुत्र श्रीहरिको पूजा आरम्भ करता है, उसी समय वे स्पर्शका अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वर्गमें चले जाते हैं। जिनका चित्त विश्वरूप वासुदेवमें स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रयविहीन, आसक्त नहीं हुआ, उनके जीवनसे तथा पशुओंकी भांति निर्गुण, ममतारहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, आहार-विहार आदि चेष्टाओंसे क्या लाभ।* राजन् ! सबको वशमें करनेवाला, सब कुछ देनेवाला और अब मैं विष्णुका ध्यान बतलाता हूँ, जो अबतक किसीने सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है । वह सर्वत्र व्यापक एवं सर्वमय है। इस देखा न होगा, वह नित्य, निर्मल एवं मोक्ष प्रदान प्रकार जो अनन्य-बुद्धिसे उस सर्वमय ब्रह्मका ध्यान करनेवाला ध्यान तुम सुनो। जैसे वायुहीन स्थानमें रखा करता है, वह निराकार एवं अमृततुल्य परम पदको प्राप्त हुआ दीपक स्थिरभावसे अग्निमय स्वरूप धारण करके होता है। प्रज्वलित होता रहता है और घरके समूचे अन्धकारका महामते ! अब मैं द्वितीय अर्थात् सगुण ध्यानका नाश करता है, उसी प्रकार ध्यानस्थ आत्मा सब प्रकारके वर्णन करता हूँ, इसे सुनो। इस ध्यानका विषय दोषोंसे रहित, निरामय, निष्काम, निश्चल तथा वैर और भगवान्का मूर्त किंवा साकार रूप है। वह निरामयमैत्रीसे शून्य हो जाता है। श्रीकृष्णका ध्यान करनेवाला रोग-व्याधिसे रहित है, उसका दूसरा कोई आलम्बपुरुष शोक, दुःख, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा भ्रम आधार नहीं है [वह स्वयं ही सबका आधार है] । आदिसे और इन्द्रियोंके विषयोंसे भी मुक्त हो जाता है। राजन् ! जिनकी वासनासे यह सारा ब्रह्माण्ड वासित जैसे दीपक जलते रहनेसे तेलको सोख लेता है, उसी है-जिनके संकल्पमें इस जगत्का वास है, वे भगवान् प्रकार ध्यान करनेसे कर्मका भी क्षय हो जाता है। श्रीहरि इस विश्वको वासित करनेके कारण ही वासुदेव मानद । भगवान् शङ्कर आदिने ध्यान दो प्रकारका कहलाते हैं। उनका श्रीविग्रह वर्षाऋतुके सजल मेघके बतलाया है-निर्गुण और सगुण। उनमेंसे प्रथम समान श्याम है, उनकी प्रभा सूर्यके तेजको भी लज्जित अर्थात् निर्गुण ध्यानका वर्णन सुनो। जो लोग योग- करती है। उनके दाहिने भागके एक हाथमें बहुमूल्य शास्त्रोक्त यम-नियमादि साधनोंके द्वारा परमात्म- मणियोंसे चित्रित शङ्ख शोभा पा रहा है और दूसरेमें साक्षात्कारका प्रयत्न कर रहे हैं, वे ही सदा ध्यानपरायण बड़े-बड़े असुरोका संहार करनेवाली कौमोदकी गदा होकर केवल ज्ञानदृष्टि से परमात्माका दर्शन करते हैं। विराजमान है। उन जगदीश्वरके बाये हाथोंमें पद्म और परमात्मा हाथ और पैरसे रहित है, तो भी वह सब कुछ चक्र सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार उनके चार भुजाएँ ग्रहण करता और सर्वत्र जाता है। मुखके बिना ही भोजन हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी है। 'शाई' नामक करता और नाकके बिना ही संघता है। उसके कान नहीं धनुष धारण करनेके कारण उन्हें शाी भी कहते हैं। वे हैं, तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी लक्ष्मीके स्वामी हैं। [उनकी झांकी बड़ी सुन्दर है-] और इस जगत्का स्वामी है। रूपहीन होकर भी रूपसे शङ्कके समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल सम्बद्ध हो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत हुआ-सा प्रतीत तथा पद्म-पत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें [-सभी होता है। वह समस्त लोकोंका प्राण है, सम्पूर्ण चराचर आकर्षक है] । कुन्द-जैसे चमकते हुए दाँतोंसे भगवान् • नरकेऽपि चिरं मनाः पूर्वजा ये कुलहये । तदैव यान्ति ते स्वर्ग यदार्चति सुतो हरिम् ॥ किं तेषां जीवितेनेह पशुवचेष्टितेन किम् । येषां न प्रवणं चितं वासुदेवे जगन्मये ।। (८४१७२-७३)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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