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________________ १२६ *********..............................****** • अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • ..........................................................................................................................................................................................*** हूँ कि कब उनका दर्शन होगा। आप श्रीजनकनन्दिनीको अपने साथ ही यहाँ क्यों नहीं लेते आये ? उनके बिना अकेले आपकी शोभा नहीं हो रही है। आपके निकट सीता शोभा पाती हैं और सीताके समीप आप। जब सरमा इस प्रकार बात कर रही थी, उस समय भरत मन-ही-मन सोचने लगे- 'यह कौन स्त्री है, जो श्रीरघुनाथजीसे वार्तालाप कर रही है ?' श्रीरामचन्द्रजी भरतका अभिप्राय ताड़ गये, वे तुरंत ही बोले– 'ये विभीषणकी पत्नी हैं, इनका नाम सरमा है। ये सीताकी प्रिय सखी हैं। वे इन्हें बहुत मानती हैं।' इतना कहकर वे सरमासे बोले – 'कल्याणी! अब तुम भी जाओ और पतिके गृहकी रक्षा करो।' इस प्रकार सीताकी प्यारी सखी सरमाको विदा करके श्रीरामने विभीषणसे कहा'निष्पाप विभीषण! तुम सदा देवताओंका प्रिय कार्य करना, कभी उनका अपराध न करना; तुम्हें देवराजके आज्ञानुसार ही चलना चाहिये। यदि लङ्कामें किसी तरह कोई मनुष्य चला आये तो राक्षसोंको उसका वध नहीं करना चाहिये, वरं मेरी ही भाँति उसका स्वागत-सत्कार करना चाहिये।' विभीषणने कहा- नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञाके अनुसार ही मैं सारा कार्य करूँगा।' विभीषण जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वायुदेवताने आकर श्रीरामसे कहा— 'महाभाग ! यहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी वामनमूर्ति है, जिसने पूर्वकालमें राजा बलिको बाँधा था। आप उसे ले जायँ और कान्यकुब्ज देशमें स्थापित कर दें।' वायुदेवताके प्रस्तावमें श्रीरामचन्द्रजीकी सम्मति जान विभीषणने श्रीवामन भगवान् के विग्रहको सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित किया और लाकर भगवान् श्रीरामको समर्पित कर दिया। फिर उन्होंने इस प्रकार कहा- 'रघुनन्दन ! जिस समय मेघनादने इन्द्रको परास्त किया था, उस समय विजयचिह्नके रूपमें वह इस वामनमूर्तिको [इन्द्रलोकसे] उठा लाया था । देवदेव ! अब आप इन भगवान्‌को ले जाइये और यथास्थान इन्हें स्थापित कीजिये।' [ संक्षिप्त पद्मपुराण 'तथास्तु' कहकर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानपर आरूढ हुए। उनके पीछे असंख्य धन, रत्न और देवश्रेष्ठ वामनजीको लेकर सुग्रीव और भरत भी विमानपर चढ़े। आकाशमें जाते समय श्रीरामने विभीषणसे कहा-' - 'तुम यहीं रहो।' यह सुनकर विभीषणने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा- 'प्रभो! आपने मुझे जो-जो आज्ञाएँ दी हैं, उन सबका मैं पालन करूँगा। परन्तु महाराज ! इस सेतुके मार्गसे पृथ्वीके समस्त मानव यहाँ आकर मुझे सतायेंगे। ऐसी परिस्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये ?' विभीषणकी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने हाथमें धनुष ले सेतुके दो टुकड़े कर दिये। फिर तीन विभाग करके बीचका दस योजन उड़ा दिया। उसके बाद एक स्थानपर एक योजन और तोड़ दिया। तदनन्तर वेलावन (वर्तमान रामेश्वरक्षेत्र) में पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीने श्रीरामेश्वरके नामसे देवाधिदेव महादेवजीकी स्थापना की तथा उनका विधिवत् पूजन किया। भगवान् रुद्र बोले – रघुनन्दन ! मैं इस समय यहाँ साक्षात् रूपसे विराजमान हूँ। जबतक यह संसार, यह पृथ्वी और यह आपका सेतु कायम रहेगा, तबतक मैं भी यहाँ स्थिरतापूर्वक निवास करूँगा। श्रीरामने कहा- भक्तोंको अभय करनेवाले देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है - दक्ष यज्ञका
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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