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________________ पातालखण्ड • वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहास्य . THREA गुह्यसे भी गुहा, उत्तम-से-उत्तम और दुर्लभसे भी ही स्वरूपकी स्फुरणा होती है। वास्तवमें वह वन ब्रह्मानन्दमय ही है। वहाँ प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमाका उदय होता है । सूर्यदेव अपनी मन्द रश्मियोंके द्वारा उस वनकी सेवा करते हैं। वहाँ दुःखका नाम भी नहीं है। उसमे जाते ही सारे दुःखोंका नाश हो जाता है। वह जरा और मृत्युसे रहित स्थान है। वहाँ क्रोध और मत्सरताका प्रवेश नहीं है। भेद और अहङ्कारको भी वहाँ पहुँच नहीं होती। वह पूर्ण आनन्दमय अमृत-रससे भरा हुआ अखण्ड प्रेमसुखका समुद्र है, तीनों गुणोंसे परे है और महान् प्रेमधाम है। वहाँ प्रेमको पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हुई है। जिस वृन्दावनके वृक्ष आदिने भी पुलकित होकर प्रेमजनित आनन्दके आँसू बरसाये हैं; वहाँक चेतन वैष्णवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है? भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-रजका स्पर्श होनेके कारण वृन्दावन इस भूतलपर नित्य धामके नामसे प्रसिद्ध है। वह सहस्त्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। - उसके स्पर्शमात्रसे यह पृथ्वी तीनों लोकोंमें धन्य समझो दुर्लभ है। तीनों लोकोंमें अत्यन्त गुप्तस्थान है। बड़े-बड़े जाती है। भूमण्डलमें वृन्दावन गुहासे भी गुहातम, देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्दसे परिपूर्ण स्थान है। रहनेकी इच्छा करते हैं। वहाँ देवता और सिद्धोंका वह गोविन्दका अक्षयधाम है। उसे भगवान्के स्वरूपसे निवास है। योगीन्द्र और मुनीन्द्र आदि भी सदा उसके भित्र नहीं समझना चाहिये। वह अखण्ड ब्रह्मानन्दका ध्यानमें तत्पर रहते हैं। श्रीवृन्दावन बहुत ही सुन्दर और आश्रय है। जहाँकी धूलिका स्पर्श होनेमानसे मोक्ष हो पूर्णानन्दमय रसका आश्रय है। वहाँकी भूमि चिन्तामणि जाता है. उस वृन्दावनके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन है, और जल रससे भरा हुआ अमृत है। वहाँके पेड़ किया जा सकता है। इसलिये देवि ! तुम सम्पूर्ण चितसे कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे झुंड-की-झंड कामधेनु गौएँ अपने हृदयके भीतर उस वृन्दावनका चिन्तन करो तथा निवास करती हैं। वहाँको प्रत्येक स्त्री लक्ष्मी और हरेक उसकी विहारस्थलियोंमें किशोरविग्रह श्रीकृष्णचन्द्रका पुरुष विष्णु हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी और विष्णुके दशांशसे ध्यान करती रहो। पहले वता आये हैं कि वृन्दावन प्रकट हुए हैं। उस वृन्दावनमें सदा श्याम तेज विराजमान सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। कलिन्द-कन्या रहता है, जिसकी नित्य-निरन्तर किशोरावस्था (पंद्रह यमुना उस कमल-कर्णिकाकी प्रदक्षिणा किया करती है। वर्षकी उम्र) बनी रहती है। वह आनन्दका मूर्तिमान् उनका जल अनायास ही मुक्ति प्रदान करनेवाला और विग्रह है। उसमें संगीत, नृत्य और वार्तालाप आदिकी गहरा है। वह अपनी सुगन्धसे मनुष्योंका मन मोह लेता अद्भुत योग्यता है। उसके मुखपर सदा मन्द मुस्कानकी है। उस जलमै आनन्ददायिनी सुधासे मिश्रित घनीभूत छटा छायी रहती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, जो मकरन्द (रस) की प्रतिष्ठा है। पद्म और उत्पल आदि प्रेमसे परिपूर्ण हैं, ऐसे वैष्णवजन ही उस वनका आश्रय नाना प्रकारके पुष्पोंसे यमुनाका स्वच्छ सलिल अनेक लेते हैं। वह वन पूर्ण ब्रह्मानन्दमें निमग्न है। वहाँ ब्रह्मके रंगका दिखायी देता है। अपनी चाल तरङ्गोंके कारण
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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