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________________ 442 . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण चले गये। अब उन्हें इस बातकी आशा हो गयी थी कि हुआ है, फिर ऐसी उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? जब मुनि यज्ञ करेंगे तो उसमें हमलोगोंको भी अवश्य ऐसा करके तू तो अपने पिता तथा पति-दोनोंके भाग देंगे। कुलको नरकमें ले जा रही है?' पिताके ऐसा कहनेपर तदनन्तर, किसी समय राजा शर्यातिकें मनमें यह पवित्र मुसकानवाली सुकन्या किञ्चित् मुसकराकर इच्छा हुई कि मैं यज्ञद्वारा देवताओंका पूजन करूँ / उस बोली-'पिताजी ! ये जार पुरुष नहीं-आपके समय उन्होंने महर्षि च्यवनको बुलानेके लिये अपने कई जामाता भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं।' इसके बाद सेवक भेजे। उनके बुलानेपर महातपस्वी विप्रवर च्यवन उसने पतिकी नयी अवस्था और सौन्दर्य-प्राप्तिका सारा वहाँ गये। साथमें उनकी धर्मपत्नी सुकन्या भी थी, जो समाचार पितासे कह सुनाया। सुनकर राजा शर्यातिको मुनियोंके समान आचार-विचारका पालन करनेमें पक्की बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर हो गयी थी। जब पत्नीके साथ वे महर्षि राजभवनमें पुत्रीको छातीसे लगा लिया। इसके बाद च्यवनने राजासे पधारे, तब महायशस्वी राजा शर्यातिने देखा कि मेरी सोमयागका अनुष्ठान कराया और सोमपानके अधिकारी कन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष खड़ा है। न होनेपर भी दोनों अश्विनीकुमारोंके लिये उन्होंने सोमका सुकन्याने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु शर्यातिने भाग निश्चित किया। महर्षि तपोबलसे सम्पन्न थे, अतः उसे आशीर्वाद नहीं दिया। वे कुछ अप्रसन-से होकर उन्होंने अपने तेजसे अश्विनीकुमारोंको सोमरसका पान कराया। अश्विनीकुमार वैद्य होनेके कारण पङ्क्तिपावन देवताओमें नहीं गिने जाते थे-उन्हें देवता अपनी पङ्क्तिमें नहीं बिठाते थे; परन्तु उस दिन ब्राह्मणश्रेष्ठ च्यवनने उन्हें देवपङ्क्तिमें बैठनेका अधिकारी बनाया। यह देखकर इन्द्रको क्रोध आ गया और वे हाथमें वज्र लेकर उन्हें मारनेको तैयार हो गये। वज्रधारी इन्द्रको अपना वध करनेके लिये उद्यत देख बुद्धिमान् महर्षि च्यवनने एक बार हुंकार किया और उनकी भुजाओंको स्तम्भित कर दिया। उस समय सब लोगोंने देखा, इन्द्रकी भुजाएँ जडवत् हो गयी हैं। बाहें स्तम्भित हो जानेपर इन्द्रकी आँखें खुली और उन्होंने मुनिकी स्तुति करते हुए कहा-'स्वामिन् ! आप अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग अर्पण कीजिये, मैं नहीं रोकता। तात ! एक बार मैंने जो अपराध किया है, उसको क्षमा कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर दयासागर महर्षिने तुरंत क्रोध त्याग दिया और इन्द्रकी भुजाएँ भी पुत्रीसे बोले-'अरी ! तूने यह क्या किया? अपने पति तत्काल बन्धनमुक्त हो गयीं-उनकी जडता दूर हो महर्षि च्यवनको, जो सब लोगोंके वन्दनीय हैं, धोखा तो गयी। यह देखकर सब लोगोंका हृदय विस्मयपूर्ण नहीं दे दिया ? क्या तूने उन्हें बूढ़ा और अप्रिय जानकर कौतूहलसे भर गया। वे ब्राह्मणोंके बलकी, जो देवता छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी आदिके लिये भी दुर्लभ है, सराहना करने लगे। सेवा कर रही है? तेरा जन्म तो श्रेष्ठ पुरुषोंके कुलमें तदनन्तर शत्रुओंको ताप देनेवाले महाराज शर्यातिने X. . -- - U
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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