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________________ उत्तरखण्ड ] .. . श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य . ८३५ जिन सहस्रों पथिकोंका भक्षण किया था, वे भी शङ्ख, और निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें सन्देह नहीं चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुज रूप हो गये। कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात ! तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतनेमें ही मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है। ग्रामपालने राक्षससे कहा-'निशाचर ! मेरा पुत्र कौन वह भी इस समय तुम्हे प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट है? उसे दिखाओ।' उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और राक्षसने कहा-'ये जो तमालके समान श्याम, चार पूर्तकोसे क्या लेना है। विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है। पूर्णानन्दसन्दोहमणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलङ्कत हैं, हार पहननेके स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोनेके मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, भुजबंदोंसे विभूषित, कमलके समान नेत्रवाले, स्निग्धरूप वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है। तुम उसीका तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर चिन्तन करो। वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है। बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन्हींको अपना पुत्र संसार-भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि-व्याधिका समझो।' यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा। देखता, अतः उसीका अभ्यास करो। पुत्र बोला-ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र श्रीमहादेवजी कहते हैं-यों कहकर वह सबके हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किन्तु अब देवता साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया । तब ग्रामपालने हो गया हूँ। इन ब्राह्मण-देवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा । फिर वे दोनों ही जाऊँगा । देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूपको प्राप्त हो उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये। पार्वती ! गया। ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायको माहात्म्य-कथा साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है; अतः तुम भी इन सुनायी है। इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोका नाश ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करो हो जाता है। श्रीमद्भगवद्रीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! दक्षिण- सुन्दर, ग्रीवा शङ्कके समान, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा दिशामें कोल्हापुर नामका एक नगर है, जो सब प्रकारके भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगरमें प्रवेश करके सब ओर सुखोंका आधार, सिद्ध-महात्माओंका निवासस्थान तथा महलोकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मीके सिद्धि-प्राप्तिका क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थमें गया और वहाँ प्रधान पीठ है। सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं। स्नान करके उसने पितरोंका तर्पण किया। फिर महामाया वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला महालक्ष्मीजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना है। वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिङ्ग हैं। रुद्रगया भी आरम्भ किया। वहीं है। वह विशाल नगर लोगोंमें बहुत विख्यात है। राजकुमार बोला-जिसके हृदयमें असीम दया एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगरमें आया। [वह भरी हुई है, जो समस्त कामनाओंको देली तथा अपने कहींका राजकुमार था।] उसके शरीरका रंग गोरा, नेत्र कटाक्षमात्रसे सारे जगत्की सृष्टि, पालन और संहार
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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