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________________ ४०० • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण ..................... . ........... आश्रय ले सबसे निःस्पृह रहे। संन्यासी भलीभांति यज्ञोपवीतधारी एवं शान्त-चित्त होकर हाथमें कुश धारण देख-भालकर आगे पैर रखे । वस्त्रसे छानकर जल पिये। करके धुला हुआ गेरुआ वस्त्र पहने, सारे शरीरमें भस्म सत्यसे पवित्र हुई वाणी बोले तथा मनसे जो पवित्र जान रमाये, वेदान्तप्रतिपादित अधियज्ञ, आधिदैविक तथा पड़े, उसीका आचरण करे।* आध्यात्मिक ब्रह्मका एकाग्रभावसे चिन्तन करे । जो सदा संन्यासीको उचित है कि वह वर्षाकालके सिवा वेदका ही अभ्यास करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता और किसी समय एक स्थानपर निवास न करे। सान है। अहिंसा, सत्य, चोरीका अभाव, ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, करके शौचाचारसे सम्पन्न रहे। सदा हाथमें कमण्डलु क्षमा, दया और संतोष-ये संन्यासीके विशेष व्रत है। लिये रहे। ब्रह्मचर्य-पालनमें संलग्न होकर सदा वनमें ही वह प्रतिदिन स्वाध्याय तथा दोनों संध्याओंके समय निवास करे। मोक्षसम्बन्धी शास्त्रोंके विचारमें तत्पर गायत्रीका जप करे । एकान्तमें बैठकर निरन्तर परमेश्वरका रहे। ब्रह्मसूत्रका ज्ञान रखे और जितेन्द्रियभावसे रहे। ध्यान करता रहे । सदा एक स्थानके अन्नका त्याग करे; संन्यासी यदि दम्भ एवं अहङ्कारसे मुक्त, निन्दा और साथ ही काम, क्रोध तथा संग्रहको भी त्याग दे। वह चुगलीसे रहित तथा आत्मज्ञानके अनुकूल गुणोंसे युक्त एक या दो वस्त्र पहनकर शिखा और यज्ञोपवीत धारण हो तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यति विधिपूर्वक स्नान किये हाथमें कमण्डलु लिये रहे। इस प्रकार त्रिदण्ड और आचमन करके पवित्र हो देवालय आदिमें प्रणव धारण करनेवाला विद्वान् संन्यासी परमपदको प्राप्त नामक सनातन देवताका निरन्तर जप करता रहे। वह होता है। संन्यासीके नियम व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार भोजन करे ।। पहले वह अन्न सूर्यको दिखा ले; फिर आश्रममें निष्ठा रखनेवाले तथा नियमित जीवन पूर्वाभिमुख हो पाँच बार प्राणाग्निहोत्र करके अर्थात् बितानेवाले संन्यासियोंके लिये फल-मूल अथवा 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, भिक्षासे जीवन-निर्वाहकी बात कही गयी। उसे एक ही व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा' इन मन्त्रोंसे पाँच ग्रास समय भिक्षा माँगनी चाहिये। अधिक भिक्षाके संग्रहमें अन्न मुँहमें डालकर एकाग्र चित्त हो आठ ग्रास अन्न आसक्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि भिक्षामें आसक्त भोजन करे। भोजनके पश्चात् आचमन करके भगवान् होनेवाला संन्यासी विषयोंमें भी आसक्त हो जाता है। ब्रह्माजी एवं परमेश्वरका ध्यान करे । तूंबी, लकड़ी, मिट्टी सात घरोंतक भिक्षाके लिये जाय । यदि उनमें न मिले तो तथा बाँस-इन्हीं चारोंके बने हुए पात्र संन्यासीके फिर न माँगे। भिक्षुको चाहिये कि वह एक बार भिक्षाका उपयोगमें आते हैं, ऐसा प्रजापति मनुका कथन है। नाम लेकर चुप हो जाय और नीचे मुँह किये एक द्वारपर रातके पहले पहरमें, मध्यरात्रिमें तथा रातके पिछले पहरमें उतनी ही देरतक खड़ा रहे, जितनी देरमें एक गाय दुही विश्वकी उत्पत्तिके कारण एवं विश्व-नामसे प्रसिद्ध ईश्वरको जाती है। भिक्षा मिल जानेपर हाथ-पैर धोकर अपने हृदय-कमलमें स्थापित करके ध्यान-सम्बन्धी विधिपूर्वक आचमन करे और पवित्र हो मौन-भावसे विशेष श्लोकों एवं मन्त्रोंके द्वारा उनका इस प्रकार * दृष्टिपूर्त न्यसेत्पादं वस्त्रपूर्त जल पिबेत् । सत्यपूर्ता वदेहाणी मनःपूत समाचरेत् ।। (५९ ॥ १९) + सप्तागार चरेद् भैक्ष्यमलाभे न पुनश्चरेत् । गोदोहमात्र तिष्ठेत कालं भिक्षुरधोमुखः॥ भिक्षेत्युक्त्वा सकतूष्णीमश्रीयाद् वाम्यतः शुचिः । प्रक्षाल्य पाणिपादं च समाचम्य यथाविधि ।। (६०१३-४)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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