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________________ सृष्टिखण्ड ] • श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति . २०५ अनिच्छासे गङ्गामें मरनेवाला मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको श्रीनारायणसे प्रकट हुई विश्वरूपिणी गङ्गाजीको बारंबार भी प्राप्त करता है। सत्त्वगुणमें स्थित योगयुक्त मनीषी नमस्कार है।) पुरुषको जो गति मिलती है, वही गङ्गाजीमें प्राण जो मनुष्य गङ्गातीरकी मिट्टी अपने मस्तकपर धारण त्यागनेवाले देहधारियोंको प्राप्त होती है। एक मनुष्य करता है, वह गङ्गामें नान किये बिना ही सब पापोंसे अपने शरीरका शोधन करनेके लिये हजारों चान्द्रायण- मुक्त हो जाता है। गङ्गाजीकी लहरोंसे सटकर बहनेवाली व्रत करता है और दूसरा मनचाहा गङ्गाजीका जल पीता वायु यदि किसीके शरीरका स्पर्श करती है, तो वह घोर है-उन दोनोंमें गङ्गाजलका पान करनेवाला पुरुष ही पापसे शुद्ध होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। श्रेष्ठ है। मनुष्यके ऊपर तभीतक तीथों, देवताओं और मनुष्यको हड्डी जबतक गङ्गाजीके जलमें पड़ी रहती है, वेदोंका प्रभाव रहता है, जबतक कि वह गङ्गाजीको नहीं उतने ही हजार वर्षांतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता प्राप्त कर लेता। है। माता-पिता, बन्धु-बान्धव, अनाथ तथा गुरुजनोंकी ___ भगवती गङ्गे ! वायु देवताने स्वर्ग, पृथ्वी और हड्डी गङ्गाजीमे गिरानेसे मनुष्य कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं आकाशमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं; वे सब होता। जो मानव अपने पितरोंकी हड्डियोंके टुकड़े तुम्हारे जलमें विद्यमान हैं। गङ्गे ! तुम श्रीविष्णुका बटोरकर उन्हें गङ्गाजीमें डालनेके लिये ले जाता है, वह चरणोदक होनेके कारण परम पवित्र हो। तीनों लोकोंमें पग-पगपर अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता है। गङ्गागमन करनेसे त्रिपथगामिनी कहलाती हो। तुम्हारा जल तीरपर बसे हुए गाँव, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा धर्ममय है; इसलिये तुम धर्मद्रवीके नामसे विख्यात हो। चर-अचर-सभी प्राणी धन्य हैं। जाह्नवी ! मेरे पाप हर लो। भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे विप्रवरो ! जो गङ्गाजीसे एक कोसके भीतर प्राणतुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्रीविष्णुद्वारा सम्मानित त्याग करते हैं, वे मनुष्य देवता ही हैं; उससे बाहरके तथा वैष्णवी हो। मुझे जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापोंसे मनुष्य ही इस पृथ्वीपर मानव हैं। गङ्गानानके लिये यात्रा बचाओ। महादेवी ! भागीरथी ! तुम श्रद्धासे, करता हुआ यदि कोई मार्गमें ही मर जाता है, तो वह भी शोभायमान रजःकणोंसे तथा अमृतमय जलसे मुझे स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राहाणो ! जो लोग गङ्गाजीकी पवित्र करो।* इस भावके तीन श्लोकोंका उच्चारण यात्रा करनेवाले मनुष्योंको वहाँका मार्ग बता देते हैं, उन्हें करते हुए जो गङ्गाजीके जलमें स्रान करता है, वह करोड़ भी परमपुण्यकी प्राप्ति होती है और वे भी गङ्गास्रानका जन्मोंके पापसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। अब मैं फल पा लेते हैं। जो पाखण्डियोंके संसर्गसे विचारशक्ति गङ्गाजीके मूल-मन्त्रका वर्णन करूँगा, जिसे साक्षात् खो बैठनेके कारण गङ्गाजीकी निन्दा करते है, वे घोर श्रीहरिने बतलाया है। उसका एक बार भी जप करके नरकमें पड़ते हैं तथा वहाँसे फिर कभी उनका उद्धार मनुष्य पवित्र हो जाता तथा श्रीविष्णुके श्रीविग्रहमें होना कठिन है। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी 'गङ्गा-गङ्गा' प्रतिष्ठित होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ नमो कहता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको प्राप्त गङ्गायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।' (भगवान् होता है। जो मनुष्य कभी गङ्गाजीमें स्नानके लिये * विष्णुपादार्घसम्पूते गङ्गे त्रिपथगामिनि । धर्मद्रवीति विख्याते पार्य मे हर जाह्रवि ॥ विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुपूजिता । त्राहि मामेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ।। श्रद्धया धर्मसम्पूर्णे श्रीमता रजसा च ते। अमृतेन महादेवि भागीरथि पुनीहि माम्।। (६० । ६०-६२) गङ्गा गनेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ (६०।७८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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