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________________ ९२० • अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण कष्टदायक और सम्पूर्ण क्लेशोंका कारण है। सब सन्ध्योपासना नहीं की। अगर्भ (ध्यानरहित) या सगर्भ कामनाओंको पाकर भी यह फिर दूसरी-दूसरी नवीन (ध्यानसहित) प्राणायाम भी नहीं किया। तीन बार जल कामनाओंको प्राप्त करना चाहता है। बूढ़े होनेपर सिरके पीकर और दो बार ओठ पोंछकर भलीभाँति आचमन बाल पक जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, आँख और कानोंकी नहीं किया। उतावली छोड़कर और हाथमें कुशकी शक्ति भी क्षीण हो जाती है; किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी पवित्री लेकर मैंने कभी गायत्रीमन्त्रका वाचिक, उपांशु है, जो उस समय भी नित्य तरुण होती जाती है। जिसके अथवा मानस जप भी नहीं किया। जीवोका बन्धन मनमें कष्टदायिनी आशा मौजूद है, वह विद्वान् होकर भी । छुड़ानेवाले महादेवजीकी आराधना नहीं की। जो मन्त्र अज्ञानी है, अशान्त है, क्रोधी है और बुद्धिमान् होकर भी पढ़कर अथवा बिना मन्त्रके ही शिवलिङ्गके ऊपर एक अत्यन्त मूर्ख है। आशा मनुष्योंको नष्ट करनेवाली है, पत्ता या फूल डाल देता है, उसकी करोड़ों पीढ़ियोका उसे अनिके समान जानना चाहिये; अतः जो विद्वान् उद्धार हो जाता है; किन्तु मैंने कभी ऐसा नहीं किया। सनातन पदको प्राप्त करना चाहता हो, वह आशाका सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाले भगवान् विष्णुको कभी परित्याग कर दे। बल, तेज, यश, विद्या, सम्मान, सन्तुष्ट नहीं किया। पाँच प्रकारकी हत्याओंके पाप शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुलमें जन्म-इन सबको आशा शान्त करनेवाले पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान नहीं किया। शीघ्र ही नष्ट कर देती है। मैंने भी इसी प्रकार बहुत क्लेश स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले अतिथिके सत्कारसे भी उठाकर यह धन कमाया है। वृद्धावस्थाने मेरे शरीरको वञ्चित रहा। संन्यासीका सत्कार करके उसे अन्नकी भी गला दिया और सारा बल भी हर लिया। अबसे मैं भिक्षा नहीं दी। ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक अतिथिके योग्य श्रद्धापूर्वक परलोक सुधारनेके लिये प्रयत्न करूँगा। भोजन नहीं दिया। ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण देवता जब धर्मके 'मैंने ब्राह्मणोंको भाँति-भांतिके सुन्दर एवं महीन मार्गपर चलनेके लिये उत्सुक हुए, उसी दिन रातमें कुछ वस्त्र नहीं अर्पण किये। सब पापोंका नाश करनेके लिये चोर उनके घरमें घुस आये। आधी रातका समय था; प्रज्वलित अनिमें घीसे भीगे हुए मन्त्रपूत तिलोंका हवन आततायी चोरोंने ब्राह्मणको खूब कसकर बाँध दिया नहीं किया। श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मण्डल ब्राह्मण, और सारा धन लेकर चंपत हुए। चोरोंके द्वारा धन छिन पुरुषसूक्त और परमपवित्र शतरुद्रिय मन्त्रका जप नहीं जानेपर ब्राह्मण अत्यन्त दारुण विलाप करने किया। पीपलके वृक्षका सेवन नहीं किया। अर्कलगा—'हाय ! मेरा धन कमाना धर्म, भोग अथवा त्रयोदशीका व्रत त्याग दिया। वह भी यदि रातको मोक्ष-किसी भी काममें नहीं आया। न तो मैंने उसे अथवा शुक्रवारके दिन पड़े, तो तत्काल सब पापोंको भोगा और न दान ही किया। फिर किसलिये धनका हरनेवाली है; किन्तु मैंने उसकी भी उपेक्षा कर दी। ठंदी उपार्जन किया? हाय ! हाय ! मैंने अपने आत्माको छायावाले सघन वृक्षका पौधा नहीं लगाया। सुन्दर धोखेमें डालकर यह क्या किया? सब जगहसे दान शय्या और मुलायम गद्देका दान नहीं किया। पंखा, लिया और मदिरातकका विक्रय किया। पहले तो एक छतरी, पान तथा मुखको सुगन्धित करनेवाली और कोई ही गौका प्रतिग्रह नहीं लेना चाहिये। यदि एकको ले वस्तु भी ब्राह्मणको दान नहीं दी। नित्य श्राद्ध, भूतबलि लिया तो दूसरीका प्रतिग्रह लेना कदापि उचित नहीं है। तथा अतिथि-पूजा भी नहीं की। उपर्युक्त उत्तम उस गौको भी यदि बेच दिया जाय तो वह सात वस्तुओंका जो लोग दान करते हैं, वे पुण्यके भागी पीढ़ियोंको दग्ध कर देती है। इस बातको जानते हुए भी मनुष्य यमलोकमें यमराजको, यमदूतोंको और मैंने लोभवश ऐसे-ऐसे पाप किये हैं। धन कमानेके यमलोककी यातनाओंको नहीं देखते; किन्तु मैंने यह भी जोशमें मैंने एक दिन भी एकाग्रचित्त होकर अच्छी तरह नहीं किया। गौओंको ग्रास नहीं दिया। उनके शरीरको
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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