________________
पातालखण्ड ]
. राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार .
५०३
सिवा दूसरी कोई अनुचित बात किसीके मुंहसे नहीं वे तपस्याके साक्षात् विग्रह-से जान पड़ते थे। उन्होंने निकलती थी। वहाँ सभी एकपत्नीव्रतका पालन मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें अर्थ्य, पाद्य आदि करनेवाले थे। दूसरोंपर झूठा कलङ्क लगानेवाला और निवेदन किया। तत्पश्चात् जब वे सुखपूर्वक आसनपर वेदविरुद्ध पथपर चलनेवाला उस राज्यमें एक भी मनुष्य विराजमान हो विश्राम कर चुके, तब राजाओमें अग्रगण्य नहीं था। राजाके सभी सैनिक प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीका सुरथने उनसे कहा- 'मुनिवर ! आज मेरा जीवन धन्य स्मरण करते रहते थे। उनके देशमें पापिष्ठ नहीं थे, है! आज मेरा घर धन्य हो गया !! आप मुझे किसीके मनमें भी पापका विचार नहीं उठता था। श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथाएँ सुनाइये। जिन्हें सुननेवाले भगवान्का ध्यान करनेसे सबके समस्त पाप नष्ट हो गये मनुष्योंका पद-पदपर पाप नाश होता है।' राजाका ऐसा थे। सभी आनन्दमग्न रहते थे।
___ वचन सुनकर मुनि अपने दाँत दिखाते हुए जोर-जोरसे उस देशके राजा जब इस प्रकार धर्मपरायण हो हंसने और ताली पीटने लगे। राजाने पूछा-'मुने ! गये तो उनके राज्यमें रहनेवाले सभी मनुष्य मरनेके बाद आपके हँसनेका क्या कारण है? कृपा करके बताइये, शान्ति प्राप्त करने लगे। सुरथके नगरमें यमदूतोका प्रवेश जिससे मनको सुख मिले।' तब मुनि बोले-'राजन् ! नहीं होने पाता था। जब ऐसी अवस्था हो गयी, तो एक बुद्धि लगाकर मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें अपने हंसनेका दिन यमराज मुनिका रूप धारण करके राजाके पास उत्तम कारण बताता हूँ। तुमने अभी कहा है कि 'मेरे गये। उनके शरीरपर वल्कल-वस्त्र और मस्तकपर जटा सामने भगवान्को कीर्तिका वर्णन कीजिये।' मगर मैं शोभा पा रही थी। राजसभामें पहुँचकर वे भगवद्भक्त पूछता हूँ-भगवान् है कौन? वे किसके हैं और उनकी महाराज सुरथसे मिले। उनके मस्तकपर तुलसी और कीर्ति क्या है ? संसारके सभी मनुष्य अपने कर्मोक जिह्वापर भगवान्का उत्तम नाम था। वे अपने सैनिकोंको अधीन हैं। कर्मसे ही स्वर्ग मिलता है, कर्मसे ही नरकमें धर्म-कर्मको बात सुना रहे थे। राजाने भी मुनिको देखा; जाना पड़ता है तथा कर्मसे ही पुत्र, पौत्र आदि सभी
वस्तुओकी प्राप्ति होती है। इन्द्रने सौ यज्ञ करके स्वर्गका उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया तथा ब्रह्माजीको भी कर्मसे ही सत्य नामक अद्भुत लोक उपलब्ध हुआ। कर्मसे बहुतोंको सिद्धि प्राप्त हुई है। मरुत् आदि कर्मसे ही लोकेश्वर-पदको प्राप्त हुए हैं। इसलिये तुम भी यज्ञकाँमें लगो, देवताओंका पूजन करो। इससे सम्पूर्ण भूमण्डलमें तुम्हारी उज्ज्वल कीर्तिका विस्तार होगा।' ।
राजा सुरथका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीमें लगा हुआ था; अतः मुनिके उपर्युक्त वचन सुनकर उनका हृदय क्रोधसे क्षुब्ध हो उठा और वे कर्मविशारद ब्राह्मणदेवतासे इस प्रकार बोले-'ब्राह्मणाधम ! यहाँ नश्वर फल देनेवाले कर्मकी बात न करो। तुम लोकमें निन्दाके पात्र हो, इसलिये मेरे नगर और प्रान्तसे बाहर चले जाओ [इन्द्र और ब्रह्माका दृष्टान्त क्या दे रहे हो?] इन्द्र शीघ्र ही अपने पदसे भ्रष्ट होंगे, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा करनेवाले मनुष्य कभी नीचे नहीं गिरेंगे। धुव,
MSRARY
RECENT