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________________ ५०२ • अर्चयस्व वषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण ..... राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अङ्गदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना - शेषजी कहते है-उस श्रेष्ठ अश्वको अनेको मनको मोहनेवाला अश्व श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ है। राजाओसे भरे हुए भारतवर्ष में लीलापूर्वक भ्रमण करते यह जानकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उत्सुक-भावसे सात महीने व्यतीत हो गये। उसने हिमालयके निकट राजसभामें जा वहाँ बैठे हुए महाराजको सूचना देते बहुत-से देशोंमें विचरण किया, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके हुए बोले-'स्वामिन् ! अयोध्या-नगरीके स्वामी जो बलका स्मरण करके कोई उसे पकड़ न सका । अङ्ग, श्रीरघुनाथजी हैं, उनका छोड़ा हुआ अश्वमेधयोग्य अश्व बङ्ग और कलिङ्ग-देशके राजाओंने तो उस अश्वका सर्वत्र भ्रमण कर रहा है। वह अनुचरोंसहित आपके भलीभाँति स्तवन किया। वहाँसे आगे बढ़नेपर वह राजा नगरके निकट आ पहुंचा है। महाराज ! वह अश्व सुरथके मनोहर नगरमें पहुँचा, जो अदितिका कुण्डल अत्यन्त मनोहर है, आप उसे पकड़ें।' गिरनेके कारण कुण्डलके ही नामसे प्रसिद्ध था। वहाँके सुरथ बोले-हम सेवकोंसहित धन्य है; क्योंकि लोग कभी धर्मका उल्लङ्घन नहीं करते थे। वहाँको हमें श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रका दर्शन होगा। करोड़ों जनता प्रतिदिन प्रेमपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया योद्धाओंसे घिरे हुए उस अश्वको आज मैं पकडूंगा और करती थी। उस नगरके मनुष्य नित्यप्रति अश्वस्थ और तभी छोड़ेगा जब श्रीरघुनाथजी चिरकालसे अपना तुलसीकी पूजा करते थे। वे सब-के-सब श्रीरघुनाथजीके चिन्तन करनेवाले मुझ भक्तपर कृपा करनेके लिये स्वयं सेवक थे। पापसे कोसों दूर रहते थे। वहाँकै सुन्दर यहाँ पदार्पण करें। देवालयोंमें श्रीरघुनाथजीकी प्रतिमा शोभा पाती थी तथा शेषजी कहते हैं-ऐसा कहकर राजाने सेवकोंको कपटरहित शुद्ध चितवाले नगर-निवासी प्रतिदिन वहाँ आज्ञा दी-'जाओ, अश्वको बलपूर्वक पकड़ लाओ। जाकर भगवान की पूजा करते थे। उनकी जिह्वापर केवल सामने पड़ जानेपर उसे कदापि न छोड़ना। मुझे ऐसा भगवानका नाम शोभा पाता था, झगड़े-फसादकी चर्चा विश्वास है कि इससे अपना महान् लाभ होगा। ब्रह्मा नहीं। उनके हृदयमें भगवान्का ही ध्यान होता; कामना और इन्द्रके लिये भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं या फलकी स्मृति नहीं होती थी। वहाँके सभी देहधारी श्रीराम-चरणोंकी झाँकी हमारे लिये सुलभ होगी। वही पवित्र थे। श्रीरामचन्द्रजीकी कथा-वार्तासे ही उनका स्वजन, पुत्र, बान्धव, पशु अथवा वाहन धन्य है, जिससे मनबहलाव होता था। वे सब प्रकारके दुर्व्यसनोंसे रहित श्रीरामचन्द्रजीकी प्राप्ति सम्भव हो; अतः जो स्वर्णपत्रसे थे; अतः कभी भी जुआ नहीं खेलते थे। उस नगरमें शोभा पा रहा है, इच्छानुसार वेगसे चलता है तथा धर्मात्मा, सत्यवादी एवं महाबली राजा सुरथ निवास देखने में अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, उस यज्ञकरते थे, जिनका चित्त श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण सम्बन्धी अश्वको पकड़कर घुड़सालमें बाँध दो।' करके सदा आनन्दमन रहा करता था। वे भगवद्-प्रेममें महाराजके ऐसा कहनेपर सेवकोंने जाकर श्रीरामचन्द्रजीके मस्त रहते थे। राम-भक्त राजा सुरथकी महिमाका मैं क्या सुन्दर अश्वको पकड़ लिया और दरबारमें लाकर उन्हें वर्णन करूँ? उनके समस्त गुण भूमण्डलमे विस्तृत अर्पण कर दिया। वात्स्यायनजी! आप एकाग्रचित्त होकर सबके पापोंका परिमार्जन कर रहे हैं। होकर सुनें । राजा सुरथके राज्यमें कोई भी ऐसा मनुष्य एक समय राजाके कुछ सेवक टहल रहे थे। नहीं था, जो परायी स्त्रीसे अनुराग रखता हो। दूसरोंके उन्होंने देखा, चन्दनसे चर्चित अश्वमेधका अश्व आ रहा धन लेनेवाले तथा कामलम्पट पुरुषका वहाँ सर्वथा है। निकटसे देखनेपर उन्हें मालूम हुआ कि यह नेत्र और अभाव था। जिह्वासे श्रीरघुनाथजीका कीर्तन करनेके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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