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________________ ९२ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • सर्वव्यापक श्रीविष्णुने यज्ञ पर्वतपर जा वहाँ अपने चरण रखकर किस दानवका दमन किया था ? महामुने! ये सारी बातें मुझे बताइये । पुलस्त्यजी बोले- वत्स! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है, एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्राचीन सत्ययुगकी बात है—बलिष्ठ दानवोंने समूचे स्वर्गपर अधिकार जमा लिया था। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर उनसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया था। उनमें बाष्कलि नामका दानव सबसे बलवान् था उसने समस्त दानवोंको यज्ञका भोक्ता बना दिया। इससे इन्द्रको बड़ा दुःख हुआ। वे अपने जीवनसे निराश हो चले। उन्होंने सोचा- 'ब्रह्माजीके वरदानसे दानवराज बाष्कलि मेरे तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये युद्धमें अवध्य हो गया है। अतः मैं ब्रह्मलोकमें चलकर भगवान् ब्रह्माजीकी ही शरण लूँगा। उनके सिवा और कोई मुझे सहारा देनेवाला नहीं है।' ऐसा विचार कर देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले तुरंत उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे। इन्द्र बोले- देव ! क्या आप हमारी दशा नहीं जानते, अब हमारा जीवन कैसे रहेगा ? प्रभो! आपके वरदानसे दैत्योंने हमारा सर्वस्व छीन लिया। मैं दुरात्मा बाष्कलिकी सारी करतूतें पहले ही आपको बता चुका हूँ। पितामह! आप ही हमारे पिता हैं। हमारी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय कीजिये। संसारसे वेदपाठ और यज्ञ-यागादि उठ गये । उत्सव और मङ्गलकी बातें जाती रहीं। सबने अध्ययन करना छोड़ दिया है। दण्डनीति भी उठा दी गयी है। इन सब कारणोंसे संसारके प्राणी किसी तरह साँसमात्र ले रहे हैं। जगत् पीडाग्रस्त तो था ही, अब और भी कष्टतर दशाको पहुँच गया है। इतने समयमें हमलोगोंको बड़ी ग्लानि उठानी पड़ी है। ब्रह्माजीने कहा- देवराज! मैं जानता हूँ बाष्कलि बड़ा नीच है और वरदान पाकर घमंडसे भर गया है। यद्यपि तुमलोगोंके लिये वह अजेय है, तथापि मैं समझता हूँ भगवान् श्रीविष्णु उसे अवश्य ठीक कर देंगे। ********** [ संक्षिप्त पद्मपुराण *************** पुलस्त्यजी कहते हैं— उस समय ब्रह्माजी समाधिमें स्थित हो गये। उनके चिन्तन करनेपर ध्यानमात्रसे चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु थोड़े ही समयमें सबके देखते-देखते वहाँ आ पहुँचे। भगवान् श्रीविष्णु बोले- ब्रह्मन् ! इस ध्यानको छोड़ो। जिसके लिये तुम ध्यान करते हो, वही मैं साक्षात् तुम्हारे पास आ गया हूँ। ब्रह्माजीने कहा- स्वामीने यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया, यह बहुत बड़ी कृपा हुई । जगत्के लिये जगदीश्वरको जितनी चिन्ता है, उतनी और किसको हो सकती है। मेरी उत्पत्ति भी आपने जगत्‌के लिये ही की थी और जगत्‌की यह दशा है; अतः उसके लिये भगवान्‌का यह शुभागमन वास्तवमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। प्रभो! विश्वके पालनका कार्य आपके ही अधीन है। इस इन्द्रका राज्य बाष्कलिने छीन लिया है। चराचर प्राणियोंके सहित त्रिलोकीको अपने अधिकारमें कर लिया है। केशव ! अब आप ही सलाह देकर अपने इस सेवककी सहायता कीजिये। भगवान् श्रीवासुदेवने कहा- ब्रह्मन् ! तुम्हारे वरदानसे वह दानव इस समय अवध्य है, तथापि उसे बुद्धिके द्वारा बन्धनमें डालकर परास्त किया जा सकता है मैं दानवोंका विनाश करनेके लिये वामनरूप धारण करूँगा। ये इन्द्र मेरे साथ बाष्कलिके घर चलें और वहाँ पहुँचकर मेरे लिये इस प्रकार वरकी याचना करें'राजन्! इस बौने ब्राह्मणके लिये तीन पग भूमिका दान दीजिये। महाभाग ! इनके लिये मैं आपसे याचना करता हूँ। ऐसा कहनेपर वह दानवराज अपना प्राणतक दे सकता है। पितामह! उस दानवका दान स्वीकार करके पहले उसे राज्यसे वञ्चित करूँगा, फिर उसे बाँधकर पातालका निवासी बनाऊँगा । यों कहकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर कार्य साधनके अनुकूल समय आनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले देवाधिदेव भगवान्ने देवताओंका हित करनेके लिये अदितिका पुत्र होनेका विचार किया। भगवान् ने जिस दिन गर्भमें प्रवेश किया,
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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