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________________ . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . ... [ संक्षिप्त पापुराण . . . . . . . लक्ष्मीनिधि, हनुमान्जी तथा अन्य योद्धा भी युद्धके काममोहित शूद्रको मोहवश ब्राह्मणोके साथ समागम लिये प्रस्थित हो। वीरोंमें अग्रगण्य अमात्य सुमतिके करनेसे लगता है। जिसको सँघनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने संग्राम-कुशल वीर योद्धाओंसे है, जिसका स्पर्श करनेसे रौरव नरककी यातना भोगनी कहा-'सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण पुष्कल पड़ती है, उस मदिराका जो पुरुष जिह्वाके स्वादके आदि जो-जो वीर यहाँ उपस्थित हैं, वे राक्षसको मारनेके वशीभूत होकर लोलुपतावश पान करता है, उसको जो विषयमें मेरे सामने कोई प्रतिज्ञा करें।' पाप होता है वह मुझे ही लगे, यदि मैं श्रीरामजीकी पुष्कल बोले-राजन् ! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये, मैं कृपाके बलसे अपनी प्रतिज्ञाको सत्य न कर सकूँ तो अपने पराक्रमके भरोसे सब लोगोंके सुनते हुए यह निश्चय ही उपयुक्त पापोंका भागी होऊँ। अद्भुत प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। यदि मैं अपने धनुषसे छूटे उनके ऐसा कहनेपर दूसरे-दूसरे महावीर योद्धाओंने हुए बाणोंकी तीखी धारसे उस दैत्यको मूर्छित न कर आवेशमें आकर अपने-अपने पराक्रमसे शोभा पानेवाली +-मुखपर बाल छितराये यदि वह धरतीपर न पड़ बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं। उस समय शत्रुघ्नने भी उन जाय, यदि उनके महाबली सैनिक मेरे बाणोंसे छिन्न- युद्धविशारद वीरोंको साधुवाद देकर उनकी प्रशंसा की भिन्न होकर धराशायी न हो जाये तथा यदि मैं अपनी और सबके देखते-देखते प्रतिज्ञा करते हुए कहाबात सधी करके न दिखा सकूँ तो मुझे वही पाप लगे, 'वीरो! अब मैं तुमलोगोंके सामने अपनी प्रतिज्ञा बता जो विष्णु और शिवमें तथा शिव और शक्तिमें भेद-दृष्टि रहा हूँ। यदि मैं उसके मस्तकको अपने सायकोंसे रखनेवालेको लगता है। श्रीरघुनाथजीके चरण-कमलोंमें काटकर, छिन्न-भिन्न करके धड़ और विमानसे नीचे मेरी निश्चल भक्ति है, वही मेरी कही हुई सब बातें पृथ्वीपर न गिरा दूँ। तो आज निश्चय ही मुझे वह पाप सत्य करेगी। लगे, जो झूठी गवाही देने, सुवर्ण चुराने और ब्राह्मणकी __पुष्कलको प्रतिज्ञा सुनकर युद्ध-कुशल हनुमानजीने निन्दा करनेसे लगता है।' । श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका स्मरण करते हुए यह शत्रुघ्नके ये वचन सुनकर वीर-पूजित योद्धा कहने कल्याणमय वचन कहा-'योगीजन अपने हृदयमें लगे-'श्रीरघुनाथजीके अनुज ! आप धन्य हैं। आपके नित्य-निरन्तर जिनका ध्यान किया करते हैं, देवता और सिवा दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। यह दुष्ट असुर भी अपना मुकुटमण्डित मस्तक झुकाकर जिनके राक्षस क्या चीज है ! इसका तुच्छ बल किस गिनतीमें चरणोंमें प्रणाम करते हैं तथा बड़े-बड़े लोकेश्वर जिनकी है! महामते ! आप एक ही क्षणमें इसका नाश कर पूजा करते हैं, वे अयोध्याके अधिनायक भगवान् डालेंगे।' ऐसा कहकर वे महावीर योद्धा अस्त्र-शस्त्रोसे श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी है। मैं उनका स्मरण करके जो सुसज्जित हो गये और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य होगा। राजन् ! अपनी युद्धके मैदानमें उस राक्षसकी ओर प्रसन्नतापूर्वक चले। इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठा हुआ यह वह इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठा था। पुष्कल दुर्बल एवं तुच्छ दैत्य किस गिनतीमें है! शीघ्र आज्ञा आदि वीरोंको उपस्थित देख उस राक्षसने कहादीजिये, मैं अकेला ही इसे मार गिराऊँगा। राजा 'अरे ! राम कहाँ है? मेरे सखा रावणको मारकर वह श्रीरघुनाथजी तथा महारानी जनककिशोरीकी कृपासे इस कहाँ चला गया है? आज उसको और उसके भाईको पृथ्वीपर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो मेरे लिये कभी भी भी मारकर उन दोनोंके कण्ठसे निकलती हुई रक्तकी असाध्य हो। यदि मेरी कही हुई यह बात झूठी हो तो धाराका पान करूंगा और इस प्रकार रावण-वधका मैं तत्काल श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे दूर हो जाऊँ। यदि बदला चुकाऊँगा।' मैं अपनी बात झूठी कर दूं, तो मुझे वही पाप लगे, जो पुष्कलने कहा-दुर्बुद्धि निशाचर ! क्यों इतनी
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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