SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 856
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५६ · अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • निर्धन होनेपर भी धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर साक्षात् भगवान् भी अपने धामको छोड़कर सर्वथा उनके हृदयमें बस जाते है। भूलोकमे यह श्रीमद्भागवत साक्षात् परब्रह्मका स्वरूप है। हम इसकी - महिमाका आज तुमसे कहाँतक बखान करें। इसका आश्रय लेकर पाठ करनेपर इसके वक्ता और श्रोता दोनों ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त कर लेते हैं; अतः इसको छोड़कर अन्य धर्मोसे क्या प्रयोजन है ? ⭑ कथामें भगवान्‌का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा-धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन = सूतजी कहते हैं- शौनकजी! तदनन्तर अपने भक्तोंके हृदयमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीविग्रह नूतन मेघके समान श्यामवर्ण था उसपर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था। भगवान्‌की वह झाँकी चित्तको चुराये लेती थी। उनका कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे अलङ्कृत था। मस्तकपर मुकुट और कानों में कुण्डल शोभा पा रहे थे। बाँकी अदासे खड़े होनेके कारण वे बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। वक्षःस्थलपर सुन्दर कौस्तुभमणि दमक रही थी। सारा श्रीअङ्ग हरिचन्दनसे चर्चित था । करोड़ों कामदेवोंकी रूप-माधुरी उनपर निछावर हो रही थी। इस प्रकार वे परमानन्द चिन्मूर्ति परम मधुर मुरलीधर श्रीकृष्ण अपने भक्तोंके निर्मल हृदयमें प्रकट हुए। वैकुण्ठ (गोलोक) में निवास करनेवाले जो उद्धव आदि वैष्णव हैं, वे भी वह कथा सुननेके लिये गुप्तरूपसे वहाँ उपस्थित थे। भगवान्‌के पधारते ही वहाँ चारों ओरसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अलौकिक प्रवाह वह चला। अबीर और गुलालके साथ ही फूलोंकी वर्षा होने लगी। बारम्बार शंखध्वनि होती रहती थी। उस सभामें जितने लोग विराजमान थे, उन्हें अपने देह-गेह और आत्मातककी सुध-बुध भूल गयी थी। उनकी यह तन्मयताकी अवस्था देख देवर्षि नारदजी इस प्रकार कहने लगे नारदजी बोले – मुनीश्वरो आज मैंने सप्ताह श्रवणकी यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी है। यहाँ जो [ संक्षिप्त पद्मपुराण = मूढ़, शठ और पशु-पक्षी आदि हैं, वे भी इसके प्रभावसे पापशून्य प्रतीत होते हैं। अतः इस मर्त्यलोकमें चित्तशुद्धिके लिये इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। कलिकालमें यह श्रीमद्भागवतकी कथा ही पाप-राशिका विनाश करनेवाली है। इस कथाके समान पृथ्वीपर दूसरा कोई साधन नहीं है। अच्छा, अब मुझे यह बताइये कि इस कथामय सप्ताहयज्ञसे संसारमें कौन-कौन लोग शुद्ध होते हैं। मुनिवर ! आपलोग बड़े दयालु हैं। आप लोगोंने लोकहितका विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है। सनकादिने कहा- देवर्षे ! जो लोग सदा ही भाँति-भाँति के पाप करते हैं, दुराचारमें प्रवृत्त रहते हैं और शास्त्र - विरुद्ध मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाप्रिसे जलनेवाले, कुटिल और कामी हैं, वे सभी कलिकालमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो सत्यसे हीन, पितामाताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णासे व्याकुल, आश्रमधर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंसे डाह रखनेवाले और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुपत्री गमन और विश्वासघात – ये पाँच भयंकर पाप करनेवाले, छल-छद्यमें प्रवृत्त रहनेवाले, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो शठ हठपूर्वक मन, वाणी और शरीरके द्वारा सदा पाप करते रहते हैं, दूसरोंके धनसे पुष्ट होते हैं, मलिन शरीर तथा खोटे हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy