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________________ सृष्टिखण्ड] • ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन • नहीं होते। इसलिये 'अच्युत' हैं। आप शङ्कररूपसे है। अद्भुत रूप धारण करनेवाले परमेश्वर ! देवता आदि शेषनागका मुकुट धारण करते हैं, इसलिये 'शेषशेखर' भी आपके उस परम स्वरूपको नहीं जानते; अतः वे भी हैं। महेश्वर ! आप ही भूत और वर्तमानके स्वामी है। कमलासनपर विराजमान उस पुरातन विग्रहकी ही सर्वेश्वर ! आप मरुद्रणोंके, जगत्के, पृथ्वीके तथा आराधना करते हैं, जो अवतार धारण करनेसे उग्र प्रतीत समस्त भुवनोंके पति हैं। आपको सदा प्रणाम है। आप होता है। आप विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंके ही जलके स्वामी वरुण, क्षीरशायी नारायण, विष्णु, भी उत्पत्ति-स्थान हैं। विशुद्ध भाववाले योगीजन भी शङ्कर, पृथ्वीके स्वामी, विश्वका शासन करनेवाले, आपके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जानते। आप तपस्यासे जगत्को नेत्र देनेवाले [अथवा जगत्को अपनी दृष्टिमें विशुद्ध आदिपुरुष हैं। पुराणमें यह बात बारम्बार कही रखनेवाले], चन्द्रमा, सूर्य, अच्युत, वीर, विश्वस्वरूप, गयी है कि कमलासन ब्रह्माजी ही सबके पिता हैं, तर्कके अविषय, अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। उन्हींसे सबकी उत्पत्ति हुई है। इसी रूपमें आपका प्रभो! आपने अपने तेजःस्वरूप प्रज्वलित अग्निको चिन्तन भी किया जाता है। आपके उसी स्वरूपको मूढ़ ज्वालासे समस्त भुवनमण्डलको व्याप्त कर रखा है। मनुष्य अपनी बुद्धि लगाकर जानना चाहते हैं। वास्तवमें आप हमारी रक्षा करें। आपके मुख सब ओर है। आप उनके भीतर बुद्धि है ही नहीं। अनेको जन्मोंको साधनासे समस्त देवताओंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। अमृत-स्वरूप वेदका ज्ञान, विवेकशील बुद्धि अथवा प्रकाश (ज्ञान) और अविनाशी है। मैं आपके अनेकों मुख देख रहा हूँ। प्राप्त होता है। जो उस ज्ञानकी प्राप्तिका लोभी है, वह आप शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंकी परमगति और फिर मनुष्य-योनिमें नहीं जन्म लेता; वह तो देवता और पुराणपुरुष हैं। आप ही ब्रह्मा, शिव तथा जगत्के गन्धर्वोका स्वामी अथवा कल्याणस्वरूप हो जाता है। जन्मदाता हैं। आप ही सबके परदादा हैं। आपको भक्तोंके लिये आप अत्यन्त सुलभ हैं; जो आपका त्याग नमस्कार है। आदिदेव ! संसारचक्रमें अनेकों बार चक्कर कर देते है-आपसे विमुख होते हैं, वे नरकमें पड़ते लगानेके बाद उत्तम मार्गके अवलम्बन और विज्ञानके हैं। प्रभो! आपके रहते इन सूर्य, चन्द्रमा, वसु, मरुद्गण द्वारा जिन्होंने अपने शरीरको विशुद्ध बना लिया है, और पृथ्वी आदिकी क्या आवश्यकता है; आपने ही उन्हींको कभी आपकी उपासनाका सौभाग्य प्राप्त होता अपने स्वरूपभूत तत्त्वोंसे इन सबका रूप धारण किया है। देववर ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। भगवन् ! जो है। आपके आत्माका ही प्रभाव सर्वत्र विस्तृत है; आपको प्रकृतिसे परे, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप समझता है, भगवन् ! आप अनन्त है-आपकी महिमाका अन्त वही सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। गुणमय पदार्थोंमें आप नहीं है। आप मेरी की हुई यह स्तुति स्वीकार करें। मैंने विराट्प से पहचाने जा सकते हैं तथा अन्तःकरणमें हृदयको शुद्ध करके, समाहित हो, आपके स्वरूपके [बुद्धिके द्वारा] आपका सूक्ष्मरूपसे बोध होता है। चिन्तनमें मनको लगाकर यह स्तवन किया है। प्रभो ! भगवन् ! आप जिह्वा, हाथ, पैर आदि इन्द्रियोंसे रहित आप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहते हैं, आपको होनेपर भी पद्म धारण करते हैं। गति और कर्मसे रहित नमस्कार है। आपका स्वरूप सबके लिये सुगमहोनेपर भी संसारी हैं। देव ! इन्द्रियोंसे शून्य होनेपर भी सुबोध नहीं है; क्योंकि आप सबसे पृथक्-सबसे आप सृष्टि कैसे करते हैं? भगवन् ! विशुद्ध भाववाले परे हैं। याज्ञिक पुरुष संसार-बन्धनका उच्छेद करनेवाले ब्रह्माजी बोले-केशव ! इसमें सन्देह नहीं कि यज्ञोंद्वारा आपका यजन करते हैं, परन्तु उन्हें स्थूल आप सर्वज्ञ और ज्ञानकी राशि हैं । देवताओंमें आप सदा साधनसे सूक्ष्म परात्पर रूपका ज्ञान नहीं होता; अतः सबसे पहले पूजे जाते हैं। उनकी दृष्टि में आपका यह चतुर्मुख स्वरूप ही रह जाता भगवान् श्रीविष्णुके बाद रुद्रने भी भक्तिसे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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