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________________ २४६ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • सुनाया। मृत्युने कहा- 'अरी! उस निर्दोष तपस्वीको तुमने क्यों मारा है ? भद्रे तपस्यामें लगे हुए पुरुषको मारना - यह तुम्हारे द्वारा उचित कार्य नहीं हुआ धर्मात्मा मृत्यु ऐसा कहकर बहुत दुःखी हो गये । सूतजी कहते हैं - एक समयकी बात है, महर्षि अत्रिके पुत्र महातेजस्वी राजा अङ्ग नन्दन वनमें गये थे। वहाँ उन्होंने गन्धवों, किन्नरों और अप्सराओंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन किया। उनके वैभव, उनके भोगविलास और उनकी लीला देखकर धर्मात्मा अङ्ग सोचने लगे - "किस उपायसे मुझे इन्द्रके समान पुत्रकी प्राप्ति हो ?' क्षणभर इस बातका विचार करके राजा अङ्ग खिन्न हो उठे। नन्दन-वनसे जब वे घर लौटे तो अपने पिता अत्रिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर बोले'पिताजी! आप ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और पुत्रपर स्नेह रखनेवाले हैं। मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली पुत्र कैसे प्राप्त हो, इसका कोई उपाय बताइये।' अत्रिने कहा – साधुश्रेष्ठ ! भक्ति करने और श्रद्धापूर्वक ध्यान लगानेसे भगवान् श्रीविष्णु संतुष्ट होते हैं और संतुष्ट होनेपर वे सदा सब कुछ देते रहते हैं। भगवान् श्रीगोविन्द सब वस्तुओंके दाता, सबकी उत्पत्तिके कारण, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर और परमपुरुष हैं। इसलिये तुम उन्हींकी आराधना करो। बेटा! तुम जो जो चाहते हो, वह सब उनसे प्राप्त होगा। भगवान् श्रीविष्णु सुख, परमार्थ और मोक्ष देनेवाले तथा इस जगत्के ईश्वर हैं। अतः जाओ, उनकी आराधना करो; उनसे तुम्हें इन्द्रके समान पुत्र प्राप्त होगा। ब्रह्माजीके पुत्र अङ्गके पिता महर्षि अत्रि ब्रह्माके समान ही तेजस्वी थे। उनसे आज्ञा लेकर अङ्गने प्रस्थान किया। वे सुवर्ण और रत्नमय शिखरोंसे सुशोभित मेरुगिरिके मनोहर शिखरपर चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गङ्गाजीके पवित्र तटपर एकान्तमें स्थित रत्नमय कन्दरामें प्रवेश किया। महामुनि अङ्ग बड़े मेधावी और धर्मात्मा थे। वे काम-क्रोधका त्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबू में रखकर भगवान्‌ के मनोमय स्वरूपका [ संक्षिप्त पद्मपुराण ध्यान करने लगे। क्लेशहारी भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते-करते वे ऐसे तन्मय हो गये कि बैठने, सोने, चलने तथा चिन्तन करनेके समय भी उन्हें नित्य निरन्तर भगवान् श्रीमधुसूदन ही दिखायी देते थे। उनका मन भगवान्में लग गया था। वे योगयुक्त और जितेन्द्रिय होकर चराचर जीवों तथा सूखे और गीले आदि समस्त पदार्थोंमें केवल भगवान् श्रीविष्णुका ही दर्शन करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उन्हें सौ वर्ष बीत गये। नियम, संयम तथा उपवासके कारण उनका सारा शरीर दुर्बल हो गया था; तो भी वे अपने तेजसे सूर्य और अनिके समान देदीप्यमान दिखायी दे रहे थे। इस तरह तपस्यामें प्रवृत्त हो ध्यानमें लगे हुए राजा अङ्गके सामने भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए और बोले- मानद ! वर माँगो, इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीवासुदेवको उपस्थित देख राजा अङ्गको बड़ा हर्ष हुआ, उनका चित्त प्रसन्न हो गया। वे भगवान्‌को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे । अङ्ग बोले- भूतभावन! आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी गति हैं। पावन परमेश्वर! आप प्राणियोंके आत्मा, सब भूतोंके ईश्वर और सगुण स्वरूप धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप गुणस्वरूप,
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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