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________________ ८०६ •अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण उस तीर्थसे आगे चण्डेश नामका उत्तम तीर्थ है, स्नान करनेसे मनुष्य निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। जहाँ सबको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले भगवान् चण्डेश्वर साभ्रमतीके पावन तटपर लोगोंकी कल्याण-कामनासे नित्य निवास करते हैं। उनका दर्शन करनेसे मनुष्य पृथ्वीके अन्य सब तीथोंका परित्याग करके जो भगवान् अनजानमें अथवा जान-बूझकर किये हुए पापसे रुद्रमें भक्ति रखता हुआ जितेन्द्रिय भावसे श्राद्ध करता है, छुटकारा पा जाता है। सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर एक वह शुद्धचित्त होकर सब यज्ञोंका फल पाता है। उस नगरका निर्माण किया, जो भगवान् चण्डेश्वरके नामसे ही तीर्थमें स्रान करके ब्राह्मणको वृषभ दान करना चाहिये। विख्यात है। वहाँसे आगे गणपति-तीर्थ है, जो बहुत ही ऐसा करनेवाला पुरुष सब लोकोंको लांघकर परम उत्तम है। वह साभ्रमतीके समीप ही विख्यात है। वहाँ गतिको प्राप्त होता है। वानी आदि तीर्थोकी महिमा श्रीमहादेवजी कहते हैं-महादेवि ! तदनन्तर इन्द्रने कहा-भगवन् ! आपकी कृपासे उस तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ परम साध्वी गिरिकन्या उस दुर्धर्ष दैत्यको आपके देखते-देखते ही इस वाघीके साथ इन्द्रका समागम हुआ था। जो मनुष्य वज्रसे मारूंगा। अपने मनको संयममें रखते हुए वहाँ स्रान करते हैं, उन्हें दस अश्वमेध-यज्ञोका फल प्राप्त होता है। जो पुरुष वहाँ तिलके चूर्णसे पिण्ड बनाकर श्राद्ध करता है, वह अपनेसे पहलेकी सात और बादकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। संगममें विधिपूर्वक स्नान करके गणेशजीका भलीभांति पूजन करनेवाला मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता और लक्ष्मी भी कभी उसका त्याग नहीं करती। पूर्वकालमें वृत्रासुर और इन्द्रमें रोमाञ्चकारी युद्ध हुआ था, जो लगातार ग्यारह हजार वर्षांतक चलता रहा। उसमें इन्द्रकी पराजय हुई और वे वृत्रासुरसे पुनः लौटनेकी शर्त करके युद्ध छोड़कर मेरी शरणमें आये। उन्होंने वानीके पवित्र संगमपर आराधनाके द्वारा मुझे सन्तुष्ट किया। तब मैंने आकाशमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया। उस समय काश्यपी गङ्गाके तटपर मेरे शरीरसे कुछ भस्म झड़कर गिरा, जिससे एक पवित्र 8 लिङ्ग प्रकट हो गया। उस शिवलिङ्गकी 'भस्मगात्र' पार्वती ! यों कहकर इन्द्र पुनः वृत्रासुरके पास नामसे प्रसिद्धि हुई । तब मैंने प्रसन्न होकर महात्मा इन्द्रसे गये। उस समय देवताओंकी सेनामें दुन्दुभि बज उठी। -कहा-'देव ! तुम जो-जो चाहते हो, वह सब तुम्हें एक ही क्षणमें इन्द्र प्रबल शक्तिसे सम्पन्न हो गये। दूंगा। इस वनकी सहायतासे तुम शीघ्र ही वृत्रासुरका युद्धकी इच्छासे वृत्रासुरके पास जाते हुए इन्द्रका रूप वध करोगे।' अत्यन्त तेजस्वी दिखायी देता था। महर्षिगण उनकी
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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