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________________ ४६६ • अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमानजीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण - शेषजी कहते हैं-मुने ! राजकुमार चित्राङ्ग रथपर सवार हुआ; परन्तु पुष्कलने लगे हाथ उसे भी क्रौञ्चव्यूहके कण्ठभागमें रथपर विराजमान था। अनेकों अपने बाणोंसे नष्ट कर डाला। इस प्रकार उस युद्धके वीरोंसे घिरे हुए होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही मैदानमें वीर पुष्कलने राजकुमार चित्राङ्गके दस रथ थी। वाराहावतारधारी भगवान् विष्णुने जिस प्रकार चौपट कर दिये। तब चित्राङ्ग एक विचित्र रथपर सवार समुद्रमें प्रवेश किया था, उसी प्रकार उसने भी शत्रुघ्नको होकर पुष्कलके साथ युद्ध करनेके लिये बड़े वेगसे सेनामें प्रवेश किया। उसका धनुष अत्यन्त सुदृढ़ और आया। उसने क्रोधमें भरकर पाँच भल्ल हाथमें लिये मेघ-गर्जनाके समान टङ्कार करनेवाला था। चित्राङ्गने और महातेजस्वी भरत-पुत्रके मस्तकको उनका निशाना उसे खींचकर चढ़ाया और करोड़ों शत्रुओंको भस्म बनाया। उन भल्लोंकी चोट खाकर पुष्कल क्रोधसे जल करनेवाले तीखे बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उन उठे और धनुषपर बाणका सन्धान करके चित्राङ्गको मार बाणोंसे समस्त शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण डालनेकी प्रतिज्ञा करते हुए बोले-'चित्राङ्ग ! यदि इस बहुत-से योद्धा धराशायी हो गये। इस प्रकार घोर संग्राम बाणसे मैं तुम्हारे प्राण न ले लूं तो शील और सदाचारसे आरम्भ हो जानेपर पुष्कल भी युद्धके लिये गये। चित्राङ्ग शोभा पानेवाली सती नारीको कलङ्कित करनेसे और पुष्कल दोनों एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय यमराजके वशमें पड़े हुए पापी मनुष्योंको जिस लोककी उन दोनोंका स्वरूप बड़ा ही मनोहर दिखायी देता था। प्राप्ति होती है, वही मुझे भी मिले ! मेरी यह प्रतिज्ञा सत्य पुष्कलने सुन्दर भ्रामकास्त्रका प्रयोग करके चित्राङ्गके हो।' पुष्कलका यह उत्तम वचन सुनकर शत्रुपक्षके दिव्य रथको आकाशमें घुमाना आरम्भ किया। यह एक वीरोंका नाश करनेवाला बुद्धिमान् वीर चित्राङ्ग हँसकर अद्भुत-सी बात हुई। एक मुहूर्ततक आकाशमें चक्कर बोला-'शूरशिरोमणे! प्राणियोंकी मृत्यु सदा और लगानेके बाद घोड़ोंसहित वह रथ बड़े कष्टसे स्थिर हुआ सर्वत्र ही हो सकती है; अतः मुझे अपने मरनेका दुःख और युद्धभूमिमें आकर ठहरा। उस समय चित्राङ्गने नहीं है; किन्तु तुम मेरे वधके लिये जो बाण छोड़ोगे, उसे कहा–'पुष्कल ! तुमने बड़ा उत्तम पराक्रम दिखाया। मैं यदि काट न डालूँ तो उस अवस्थामें मेरी प्रतिज्ञा श्रेष्ठ योद्धा संग्राममें ऐसे कर्मोकी बड़ी सराहना करते हैं। सुनो-जो मनुष्य तीर्थ-यात्राकी इच्छा रखनेवाले तुम घोड़ोसहित मेरे रथको आकाशमें घुमाते रह गये! पुरुषका मानसिक उत्साह नष्ट करता है, उसको किन्तु अब मेरा भी पराक्रम देखो, जिसकी शूरवीर लगनेवाला पाप मुझे भी लगे; क्योंकि उस दशामें मैं प्रशंसा करते हैं। ऐसा कहकर चित्राङ्गने युद्धमें बड़े प्रतिज्ञा-भङ्गका अपराधी समझा जाऊँगा।' इतना कहकर भयङ्कर अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आबद्ध चित्राङ्ग चुप हो गया। उसने अपने धनुषको संभाला। होकर पुष्कलका रथ आकाशमें पक्षीकी भाँति घोड़े और तब पुष्कल बोले-'यदि मैंने निष्कपट भावसे सारथिसहित चक्कर लगाने लगा। पुत्रका यह पराक्रम श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंकी उपासना की हो तो मेरी देखकर राजा सुबाहुको बड़ा विस्मय हुआ। बात सच्ची हो जाय । यदि मैं अपनी स्त्रीके सिवा दूसरी शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले पुष्कल जब किसी किसी स्त्रीका मनमें भी विचार न करता होऊँ तो इस तरह धरतीपर आकर ठहरे तो उन्होंने घोड़े और सत्यके प्रभावसे युद्धमें मेरा वचन सत्य हो।' यह सारथिसहित चित्राङ्गके रथको अपने बाणोंसे नष्ट कर कहकर पुष्कलने तुरंत ही अपने धनुषपर एक बाण दिया। जब वह रथ टूट गया तो वीर चित्राङ्ग पुनः दूसरे चढ़ाया, जो कालाग्निके समान तेजस्वी तथा वीरोंके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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