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________________ ३७६ . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [संक्षिप्त पापुराण द्विजवरो! भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप जो श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करते हुए करताल आदि तुलसीदलको सँघकर मनुष्य यमराजके प्रचण्ड एवं बजाकर मधुर स्वर तथा मनोहर शब्दोंमें उनके नामोंका विकराल मुखका दर्शन नहीं करता। कीर्तन करता है, उसने ब्रह्महत्या आदि पापोंको मानो सकृत्प्रणामी कृष्णस्य मातुः स्तन्यं पिबेन्न हि। ताली बजाकर भगा दिया। हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥९॥ हरिभक्तिकथामुक्ताख्यायिका श्रृणुयाच यः । एक बार भी श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य तस्य संदर्शनादेव पूतो भवति मानवः ॥ १५॥ पुनः माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता-उसका दूसरा जो हरिभक्ति-कथारूपी मुक्तामयी आख्यायिकाका जन्म नहीं होता। जिन पुरुषोंका चित्त श्रीहरिके चरणोंमें श्रवण करता है, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य पवित्र हो लगा है, उन्हें प्रतिदिन मेरा बारंबार नमस्कार है। जाता है। पुल्कसः श्वपचो वापि ये चान्ये म्लेच्छजातयः। किं पुनस्तस्य पापानामाशङ्का मुनिपुङ्गवाः । तेऽपि वन्द्या महाभागा हरिपादैकसेवकाः ॥ १०॥ तीर्थानां च परं तीर्थ कृष्णनाम महर्षयः ॥ १६ ॥ पुल्कस, श्वपच (चाण्डाल) तथा और भी जो मुनिवरो ! फिर उसके विषयमें पापोंकी आशङ्का म्लेच्छ जातिके मनुष्य हैं, वे भी यदि एकमात्र श्रीहरिके क्या रह सकती है। महर्षियो ! श्रीकृष्णका नाम सब चरणोंकी सेवामें लगे हों तो वन्दनीय और परम तीर्थों में परम तीर्थ है। सौभाग्यशाली हैं। तीर्थीकुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः । किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। तस्मान्मुनिवरा: पुण्यं नातः परतरं विदुः ॥ १७ ॥ हरौ भक्ति विधायैव गर्भवासं न पश्यति ॥ ११॥ जिन्होंने श्रीकृष्ण-नामको अपनाया है, वे पृथ्वीको फिर जो पुण्यात्मा ब्राह्मण और राजर्षि भगवान्के तीर्थ बना देते हैं। इसलिये श्रेष्ठ मुनिजन इससे बढ़कर भक्त हों, उनकी तो बात ही क्या है। भगवान् श्रीहरिकी पावन वस्तु और कुछ नहीं मानते। भक्ति करके ही मनुष्य गर्भवासका दुःख नहीं देखता। विष्णुप्रसादनिर्माल्य भुक्त्वा धृत्वा च मस्तके। हरेरणे स्वनैरुचैर्नृत्यस्तन्नामकृन्नरः। विष्णुरेव भवेन्मयों यमशोकविनाशनः । पुनाति भुवनं विप्रा गङ्गादि सलिलं यथा ॥ १२ ॥ अर्चनीयो नमस्कार्यो हरिरेव न संशयः ॥ १८॥ ब्राह्मणो ! भगवान्के सामने उधस्वरसे उनके श्रीविष्णुके प्रसादभूत निर्माल्यको खाकर और नामोका कीर्तन करते हुए नृत्य करनेवाला मनुष्य गङ्गा मस्तकपर धारण करके मनुष्य साक्षात् विष्णु ही हो जाता आदि नदियोंके जलकी भाँति समस्त संसारको पवित्र कर है। वह यमराजसे होनेवाले शोकका नाश करनेवाला देता है। 5 होता है; वह पूजन और नमस्कारके योग्य साक्षात् दर्शनात् स्पर्शनात्तस्य आलापादपि भक्तितः। श्रीहरिका ही स्वरूप है-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ १३ ॥ ये हीमं विष्णुमव्यक्तं देवं वापि महेश्वरम् । उस भक्तके दर्शन और स्पर्शसे, उसके साथ एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्धवः ॥ १९ ॥ वार्तालाप करनेसे तथा उसके प्रति भक्तिभाव रखनेसे जो इन अव्यक्त विष्णु तथा भगवान् महेश्वरको एक मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है-इसमें भावसे देखते हैं, उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं तनिक भी संदेह नहीं है। होता। हरेः प्रदक्षिणं कुर्वन्नुवैस्तन्नामकृन्नरः। तस्मादनादिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्। करतालादिसंधानं सुस्वरं कलशब्दितम्। हरे चैकं प्रपश्यध्यं पूजयध्यं तथैव हि ॥ २०॥ ब्रह्महत्यादिकं पापं तेनैव करतालितम् ॥ १४ ॥ अतः महर्षियो! आप आदि-अन्तसे रहित
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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