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________________ सृष्टिखण्ड ] • पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य . . . . . .. . सबकी बातें समा जाती है जो सबकी सह लेता है अहिंसामें लीन रहते हैं। राजन् ! जो हिंसाका आश्रय तथा जिसके पाससे कोई बात लौटकर पुनः वक्ताके पास लेता है वह सदा ही मृतकके समान है। नहीं जाती-जो कटु वचन कहनेवालेको भी कटु उत्तर इस प्रकार जो सबके प्रति समान भाव रखता है, नहीं देता, वही संन्यासाश्रममें रहनेका अधिकारी है। भलीभाँति धैर्य धारण किये रहता है, इन्द्रियोंको अपने कभी किसीकी भी निन्दाको न तो करे और न सुने ही। वशमें रखता है तथा सम्पूर्ण भूतोको त्राण देता है, वह विशेषतः ब्राह्मणोंकी निन्दा तो किसी तरह न करे। ज्ञानी पुरुष उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जिसका ब्राह्मणका जो शुभकर्म हो, उसीकी सदा चर्चा करनी अन्तःकरण उत्तम ज्ञानसे परितृप्त है तथा जिसमें ममताका चाहिये। जो उसके लिये निन्दाकी बात हो, उसके सर्वथा अभाव है, उस मनीषी पुरुषकी मृत्यु नहीं होती; विषयमें मौन रहना चाहिये । यही आत्मशुद्धिकी दवा है। वह अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है। ज्ञानी मुनि सब जो जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर आकाशकी भांति है, जो कुछ मिल जाय उसीको खाकर भूख मिटा लेता स्थित होता है। जो सबमें विष्णुकी भावना करनेवाला है तथा जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्राह्मण और शान्त होता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। (ब्रह्मवेत्ता) समझते हैं। जो जन-समुदायको साँप जिसका जीवन धर्मके लिये, धर्म आत्मसन्तोषके लिये समझकर, नेह-सम्बन्धको नरक जानकर तथा स्त्रियोंको तथा दिन-रात पुण्यके लिये हैं, उसे देवतालोग ब्राह्मण मुर्दा समझकर उन सबसे डरता रहता है; उसे देवतालोग समझते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो ब्राह्मण कहते हैं। जो मान या अपमान होनेपर स्वयं हर्ष कोंक आरम्भका कोई संकल्प नहीं करता तथा नमस्कार अथवा क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उसे देवतालोग और स्तुतिसे दूर रहता है, जिसने योगके द्वारा कर्मोको ब्राह्मण मानते हैं। जो जीवन और मरणका अभिनन्दन न क्षीण कर दिया है, उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। करके सदा कालकी ही प्रतीक्षा करता रहता है, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देना संसारमें समस्त देवता ब्राह्मण मानते हैं। जिसका चित्त राग-द्वेषादिके दानोंसे बढ़कर है। जो किसीकी निन्दाका पात्र नहीं है वशीभूत नहीं होता, जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है तथा तथा जो स्वयं भी दूसरोंकी निन्दा नहीं करता, वही ब्राह्मण जिसकी बुद्धि भी दूषित नहीं होती, वह मनुष्य सब परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। जिसके समस्त पाप पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंसे निर्भय नष्ट हो गये हैं, जो इहलोक और परलोकमें भी किसी है तथा समस्त प्राणी जिससे भय नहीं मानते, उस वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं करता, जिसका मोह दूर हो देहाभिमानसे मुक्त पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता । जैसे गया है, जो मिट्टीके ढेले और सुवर्णको समान दृष्टिसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य समस्त पादचारी जीवोंके देखता है, जिसने रोषको त्याग दिया है, जो निन्दा-स्तुति पदचिह्न समा जाते हैं, तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान और प्रिय-अप्रियसे रहित होकर सदा उदासीनकी भांति चित्तमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सारे धर्म और अर्थ विचरता रहता है, वही वास्तवमें संन्यासी है। पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! आपके मुखसे यह पुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो सब प्रसङ्ग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्माजीका बातें हुई उन्हें बतलाता हूँ: सुनो। पितामहका यज्ञ आदि यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अङ्गिरा, श्रवण करनेसे मेरे शरीर [और मन] की शुद्धि होगी। मैं, पुलह, क्रतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! भगवान् ब्रह्माजी जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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