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________________ ६०८ चारूरुजानुमनुवृत्तमनोज्ञज " अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • ... कान्तोन्नतप्रपदनिन्दितकूर्मकान्तिम् माणिक्यदर्पणलसन्नखराजिराज ॥ इक्ताङ्गुलिकदन सुन्दरपादपद्यम् दोनों जाँघें और घुटने सुन्दर है; पिडलियोका भाग गोलाकार एवं मनोहर है; पादाग्रभाग परम कान्तिमान् तथा ऊँचा है और अपनी शोभासे कछुएके पृष्ठभागकी कान्तिको मलिन कर रहा है तथा दोनों चरण कमल माणिक्य तथा दर्पणके समान स्वच्छ नखपङ्क्तियोंसे सुशोभित लाल-लाल अङ्गुलिदलोंके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं। मत्स्याङ्कुशारिदरकेतुयवाब्जवत्रैः शश्वद्भवैः संलक्षितारुणकराङ्घ्रितलाभिरामम् लावण्यसारसमुदायविनिर्मिताङ्गं सौन्दर्यनिन्दित मनोभवदेहकान्तिम् ॥ मत्स्य, अङ्कुश, चक्र, शङ्ख, पताका, जौ, कमल और वज्र आदि चिह्नोंसे चिह्नित लाल-लाल हथेलियों तथा तलवोंसे भगवान् बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। उनका श्रीअङ्ग लावण्यके सार संग्रहसे निर्मित जान पड़ता है तथा उनके सौन्दर्यके सामने कामदेवके शरीरकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। आस्यारविन्दपरिपूरितवेणुरन्ध्र थनोंके भारसे लड़खड़ाती हुई मन्द मन्द गतिसे 1 चलनेवाली गौएँ दाँतोंके अग्रभागमें चबानेसे बचे हुए तिनकोंके अङ्कुर लिये, पूँछ लटकाये भगवान्के मुखकमलमें आँखें गड़ाये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हैं। लोलकराङ्गुलिसमीरितदिव्यरागैः । कृतनिविष्टसमस्तजन्तुसन्तानसंनतिमनन्तसुखाम्बुराशिम् ॥ भगवान् अपने मुखारविन्दसे मुरली बजा रहे हैं; उस समय मुरलीके छिद्रोंपर उनकी अंगुलियोंके फिरनेसे निरन्तर दिव्य रागोंकी सृष्टि हो रही है, जिनसे प्रभावित हो समस्त जीव-जन्तु जहाँ के तहाँ बैठकर भगवान्‌की ओर मस्तक टेक रहे हैं। भगवान् गोविन्द अनन्त आनन्दके समुद्र हैं। गोभिर्मुखाम्बुजविलीनविलोचनाभि रूथो भरस्खलितमन्थरमन्दगाभिः । दन्ताप्रदष्टपरिशिष्टतॄणाङ्कुराभि रालम्बिवालधिलताभिरथाभिवीतम् ॥ [ संक्षिप्त पद्मपुराण सम्प्रस्स्रुतस्तनविभूषणपूर्णनिश्च लास्याद् दृढक्षरितफेनिलदुग्धमुग्धैः । वेणुप्रवर्तितमनोहरमन्दगीतदत्तोकर्णयुगलैरपि वर्णकैश्च ॥ गौओके साथ ही छोटे-छोटे बछड़े भी भगवान्‌को सब ओरसे घेरे हुए हैं और मुरलीसे मन्दस्वरमे जो मनोहर संगीतकी धारा बह रही है, उसे वे कान लगाकर 1 सुन रहे हैं, जिसके कारण उनके दोनों कान खड़े हो गये हैं। गौओंके टपकते हुए थनोंके आभूषणरूप दूधसे भरे हुए उनके मुख स्थिर हैं, जिनसे फेनयुक्त दूध बह रहा है; इससे वे बछड़े बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। गोपैः समानगुणशीलवयोविलास मूर्च्छितकलस्वनवेणुवीणैः । शैश्च मन्दोचतारपटुगानपरैर्विलोल ******** दोवल्लरीललितलास्यविधानदक्षैः ॥ भगवान् के ही समान गुण, शील, अवस्था, विलास तथा वेष भूषावाले गोप भी, जो अपनी चञ्चल भुजाओंको सुन्दर ढंगसे नचानेमें चतुर हैं, वंशी और वीणाकी मधुर ध्वनिका विस्तार करके मन्द, उच्च और तारस्वरमें कुशलतापूर्वक गान करते हुए भगवान्‌को सब ओरसे घेरकर खड़े हैं। जङ्घान्तपीवरकटीरतटीनिबद्ध व्यालोलकिङ्किणिघटारणितैरटद्धिः 1 मुग्धैस्तरक्षुनखकल्पितकान्तभूषै रव्यक्तमनुवचनैः पृथुकैः परीतम् ॥ छोटे-छोटे ग्वाल-बाल भी भगवान्‌के चारों ओर घूम रहे हैं; जाँघसे ऊपर उनके मोटे कटिभागमें करधनी पहनायी गयी है, जिसकी क्षुद्रघण्टिकाओंकी मधुर झनकार सुनायी पड़ती है। वे भोले-भाले बालक बघनखोंके सुन्दर आभूषण पहने हुए हैं। उनकी
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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