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________________ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण - व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन व्यासजी कहते है-ब्राह्मणो! किसी भी अधिकारी नहीं है-यही मर्यादा है। जो वास्तवमें प्राणीकी हिंसा न करे। कभी झूठ न बोले। अहित अलिङ्गी है-जिसने किसी आश्रमका चिह्न नहीं ग्रहण करनेवाला तथा अप्रिय वचन मुंहसे न निकाले। कभी किया है, वह भी यदि दिखावेके तौरपर आश्रमविशेषका चोरी न करे। किसी दूसरेकी वस्तु-चाहे वह तिनका, चिह्न-उसकी वेष-भूषा धारण करके जीविका चलाता साग, मिट्टी या जल ही क्यों न हो-चुरानेवाला मनुष्य है तो वह वास्तविक लिङ्गी (आश्रमचिहधारी) पुरुषके नरकमें पड़ता है। राजासे, शूद्रसे, पतितसे तथा दूसरे पापको ग्रहण करता है तथा तिर्यम्योनिमें जन्म लेता है। किसीसे भी दान न ले। यदि विद्वान् ब्राह्मण असमर्थ नीच पुरुषसे याचना, योनिसम्बन्ध, सहवास और हो-उसका दान लिये बिना काम न चले, तो भी उसे बातचीत करनेवाला द्विज गिर जाता है; अतः इन सब निन्दित पुरुषोंको तो त्याग ही देना चाहिये। कभी याचक बातोंसे यत्नपूर्वक दूर रहना चाहिये। देवद्रोह और न बने; [याचना करे भी, तो] एक ही पुरुषसे दुबारा गुरुद्रोह न करे; देवद्रोहसे भी गुरुद्रोह कोटि-कोटिगुना याचना न करे। इस प्रकार सदा या बारंबार मांगनेवाला अधिक है। तथा उससे भी करोड़गुना अधिक है दूसरे याचक कभी-कभी दुर्बुद्धि दाताका प्राण भी ले लेता है। लोगोंपर लाञ्छन लगाना और ईश्वर तथा परलोकपर श्रेष्ठ द्विज विशेषतः देवसम्बन्धी द्रव्यका अपहरण न करे अविश्वास करना । कुत्सित विचार, क्रियालोप, वेदोंके न तथा ब्राह्मणका धन तो कभी आपत्ति पड़नेपर भी न ले। पढ़ने और ब्राह्मणका तिरस्कार करनेसे उत्तम कुल भी विषको विष नहीं कहते; ब्राह्मण और देवताका धन अधम हो जाते हैं। असत्यभाषण, परस्त्रीसंगम, ही विष कहलाता है; अतः सर्वदा प्रयलपूर्वक उससे अभक्ष्यभक्षण तथा अपने कुलधर्मके विरुद्ध आचरण बचा रहे।* करनेसे कुलका शीघ्र ही नाश हो जाता है। द्विजो ! देवपूजाके लिये सदा एक ही स्थानसे जो गाँव अधार्मिकोंसे भरा हो तथा जहाँ रोगोंकी मालिककी आज्ञा लिये बिना फूल नहीं तोड़ने चाहिये। अधिकता हो, वहाँ निवास न करे। शूद्रके राज्यमें तथा विद्वान् पुरुष केवल धर्मकार्यके लिये दूसरेके घास, पाखण्डियोंसे घिरे हुए स्थानमें भी न रहे। द्विज हिमालय लकड़ी, फल और फूल ले सकता हैकिन्तु इन्हें सबके और विन्ध्याचलके तथा पूर्वसमुद्र और पश्चिमसमुद्रके सामने-दिखाकर ले जाना चाहिये । जो इस प्रकार नहीं बीचके पवित्र देशको छोड़कर अन्यत्र निवास न करे। करता, वह गिर जाता है। विप्रगण ! जो लोग कहीं जिस देशमें कृष्णसार मृग सदा स्वभावतः विचरण करता मार्गमें हों और भूखसे पीडित हों, वे ही किसी खेतसे है अथवा पवित्र एवं प्रसिद्ध नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मुट्ठीभर तिल, मूंग या जौ आदि ले सकते हैं अन्यथा वहीं द्विजको निवास करना चाहिये। श्रेष्ठ द्विजको उचित जो भूखे एवं राही न हों, वे उन वस्तुओंको लेनेके है कि नदी-तटसे आधे कोसकी भूमि छोड़कर अन्यत्र * न हिस्यात् सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत् क्वचित् । नाहितं नाप्रियं वाच्यं न स्तेनः स्यात् कदाचन ॥ तृणं वा यदि वा शार्क मृद वा जलमेव वा । परस्यापहरजन्तुर्नरक प्रतिपद्यते ॥ न राज्ञः प्रतिगृहीयान शूद्रात् पतितादपि । न चान्यस्मादशक्तश्चेनिन्दितान् वर्जयेद् बुधः ।। नित्यं याचनको न स्थात् पुनस्तं नैव याचयेत् । प्राणानपहरत्येवं याचकस्तस्य दुर्मतेः ॥ न देवद्रव्यहारी स्याद् विशेषेण द्विजोत्तमः । ब्रह्मस्व वा नापहरेदापत्स्वपि कदाचन ॥ न विष विषमित्याहुब्रह्मस्वं विषमुच्यते । देवस्वं चापि यत्नेन सदा परिहरेत्ततः ॥ (५५।१-६) + अनृतात् पारदार्याक्ष तथाभक्ष्यस्य भक्षणात् । अगोत्रधर्माचरणात् क्षिप्रं नश्यति वै कुलम्॥ (५५।१८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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