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________________ उत्तरखण्ड] • मृगज मुनिके द्वारा पापके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार . नमस्कार है। मेरे पापोंका नाश करो। मरुद्वृधे! तुम नाम ले-लेकर विलाप करने लगी। बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। माघ मासमें जो लोग तुम्हारे कन्याओंकी माताएँ जब इस प्रकार जोर-जोरसे जलमें स्रान करते हैं, उनके बड़े-बड़े पापोंको हर लेती क्रन्दन कर रही थीं, उसी समय तपस्याके भण्डार, हो। माता ! मुझे मङ्गल प्रदान करो। पश्चिमवाहिनी कान्तिमान, धीर तथा जितेन्द्रिय, श्रीमान् मृगशृङ्ग मुनि कावेरी ! मुझे पति, धन, पुत्र, सम्पूर्ण मनोरथ और वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने मन-ही-मन एक उपाय सोचा पातिव्रत्य-पालनकी शक्ति दो।' यों कहकर सुवृत्ता और सोचकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'जबतक कावेरीको प्रणाम करती और जब कुछ-कुछ सूर्यका इन कमलनयनी कन्याओको जीवित न कर दूं, तबतक उदय होने लगता, उसी समय वह नित्यनान किया आपलोग इनके सुन्दर शरीरकी रक्षा करे।' यो कहकर करती थी। इस प्रकार उसने तीन वर्षातक माघस्रान मुनि परम पावन कावेरीके तटपर गये और कण्ठभर किया। उसका उत्तम चरित्र तथा गृहकार्यमें चतुरता पानीमें खड़े हो, मुख एवं भुजाओंको ऊपर उठाये देखकर पिताका मन बड़ा प्रसन्न रहता था। वे सोचने सूर्यदेवकी ओर देखते हुए मृत्यु देवताकी स्तुति करने लगे-अपनी कन्याका विवाह किससे कसै? इसी लगे। इसी बीचमें एक समय वही हाथी पानीके भीतरसे बीचमें कुत्स मुनिने अपने पुत्र ब्रह्मचारी वत्सका विवाह उठा और उन ब्राह्मण मुनिको मारनेके लिये सँड़ उठाये करनेके लिये उचथ्यकी सुमुखी कन्या सुवृत्ताका वरण बड़े वेगसे उनके समीप आया। हाथीका क्रोध देखकर करनेका विचार किया। सुवृत्ता बड़ी सुन्दरी थी। उसमें भी मुनिवर मृगशृङ्ग जलसे विचलित नहीं हुए, अपितु, अनेक शुभ लक्षण थे। वह बाहर-भीतरसे शुद्ध तथा चित्रलिखित-से चुपचाप खड़े रहे । पास आनेपर एक ही नीरोग थी। उस समय उसकी कहीं तुलना नहीं थी। क्षणमें उस गजराजका क्रोध चला गया। वह बिलकुल वत्स मुनिने उससे विवाह करनेकी अभिलाषा की। शान्त हो गया। उसने मुनिको सँड़से पकड़कर अपनी एक दिन सुवृत्ता अपनी तीन सखियोंके साथ पीठपर बिठा लिया। मुनि उसके भावको समझ गये। माघनान करनेके लिये अरुणोदयके समय कावेरौके उसके कंधेपर सुखपूर्वक बैठनेसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ तटपर आयी। उसी समय एक भयानक जंगली हाथी और जप समाप्त करके हाथमें जल ले 'मैंने आठ दिनोंके पानीसे निकला। उसे देखकर सुवृत्ता आदि कन्याएँ माघस्नानका पुण्य तुम्हें दे दिया।' यों कहकर उन्होंने भयसे व्याकुल होकर भागीं। हाथी भी बहुत दूरतक शीघ्र ही वह जल हाथीके मस्तकपर छोड़ दिया। इससे उनके पीछे-पीछे गया। चारों कन्याएँ वेगसे दौड़नेके गजराज पापरहित हो गया और मानो इस बातको स्वयं कारण हॉफने लगी और तिनकोसे ढ़के हुए एक बहुत भी समझते हुए उसने प्रलयकालीन मेघके समान बड़े बड़े जलशून्य कुएँ गिर पड़ी। कुएँ गिरते ही उनके जोरसे गर्जना की। उसकी इस गर्जनासे भी मुनिके मनमें प्राण निकल गये। जब वे घर लौटकर नहीं आयीं, तब बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कृपापूर्वक उस गजराजकी माता-पिता उनकी खोज करते हुए इधर-उधर भटकने ओर देखकर उसके ऊपर अपना हाथ फेरा । मुनिके लगे। उन्होंने वन-वनमें घूमकर झाड़ी-झाड़ी छान हाथका स्पर्श होनेसे उसने हाथीका शरीर त्याग दिया डाली। आगे जानेपर उन्हें एक गहरा कुआँ दिखायी और आकाशमें देवताकी भाँति दिव्यरूप धारण किये दिया, जो तिनकोसे ढंका होनेके कारण प्रायः दृष्टि में नहीं दृष्टिगोचर हुआ। उस रूपमें उसे देखकर मुनीश्वरको आता था। उन्होंने देखा, वे कमललोचना कन्याएँ कुएँके बड़ा विस्मय हुआ। भीतर निर्जीव होकर पड़ी है। उनकी माताएं कन्याओंके तब दिव्यरूपधारी उसजीवने कहा-मुनीश्वर ! पास चली गयीं और शोकग्रस्त हो बारंबार उन्हें छातीसे मैं कृतार्थ हो गया, क्योंकि आपने मुझे अत्यन्त निन्दित लगाकर 'विमले! कमले! सुवृत्ते ! सुरसे !' आदि एवं पापमयी पशुयोनिसे मुक्त कर दिया। दयानिधे!
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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