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________________ उत्तरखण्ड ] • कार्तिक-व्रतका माहात्म्य-गुणवतीको कार्तिक-नतके पुण्यसे भगवानको प्राप्ति • ७५१ ... .................................................................. मैंने पूर्वजन्ममें कौन-सा दान, तप अथवा व्रत किया था, पाँच रूपोंमें प्रकट हुआ है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई 'जिससे मैं मर्त्यलोकमें जन्म लेकर भी मयंभावसे ऊपर देवदत्त नामक एक ही व्यक्ति पुत्र-पिता आदि भिन्न-भिन्न उठ गयी, आपकी अर्धाङ्गिनी हुई। नामोंसे पुकारा जाता है।* भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिये ! एकाग्रचित्त तदनन्तर गुणवतीने जब राक्षसके हाथसे उन होकर सुनो-तुम पूर्वजन्ममें जो कुछ थीं और जिस दोनोंके मारे जानेका हाल सुना, तब वह पिता और पुण्यकारक व्रतका तुमने अनुष्ठान किया था, वह सब मैं पतिके वियोग-दुःखसे पीड़ित होकर करुणस्वरमें विलाप बताता हूँ। सत्ययुगके अन्तमें मायापुरी (हरद्वार) के करने लगी-'हा नाथ ! हा तात! आप दोनों मुझे भीतर अत्रिकुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण रहते थे, जो अकेली छोड़कर कहाँ चले गये? मैं अनाथ बालिका देवशर्मा नामसे प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदाङ्गोंके पारंगत आपके बिना अब क्या करूँगी। अब कौन घरमें बैठी विद्वान्, अतिथिसेवी, अग्रिहोत्रपरायण और सूर्यव्रतके हुई मुझ कुशलहीन दुःखिनी स्त्रीका भोजन और वस्त्र पालनमें तत्पर रहनेवाले थे। प्रतिदिन सूर्यकी आराधना आदिके द्वारा पालन करेगा।' इस प्रकार वारंवार करनेके कारण वे साक्षात् दूसरे सूर्यकी भाँति तेजस्वी करुणाजनक विलाप करके वह बहुत देरके बाद चुप जान पड़ते थे। उनकी अवस्था अधिक हो चली थी। हुई। गुणवती शुभकर्म करनेवाली थी। उसने घरका ब्राह्मणके कोई पुत्र नहीं था; केवल एक पुत्री थी, सारा सामान बेचकर अपनी शक्तिके अनुसार पिता और जिसका नाम गुणवती था। उन्होंने अपने चन्द्र नामक पतिका पारलौकिक कर्म किया। तत्पश्चात् वह उसी शिष्यके साथ उसका विवाह कर दिया । वे उस शिष्यको नगरमें निवास करने लगी। शान्तभावसे सल्य-शौच ही पुत्रकी भाँति मानते थे और वह जितेन्द्रिय शिष्य भी आदिके पालनमें तत्पर हो भगवान् विष्णुके भजनमें उन्हें पिताके ही तुल्य समझता था। एक दिन वे दोनों समय बिताने लगी। उसने अपने जीवनभर दो व्रतोंका गुरु-शिष्य कुश और समिधा लानेके लिये गये और विधिपूर्वक पालन किया-एक तो एकादशीका उपवास हिमालयके शाखाभूत पर्वतके वनमें इधर-उधर भ्रमण और दूसरा कार्तिक मासका भलीभाँति सेवन । प्रिये ! ये करने लगे; इतनेमें ही उन्होंने एक भयङ्कर राक्षसको दो व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। ये पुण्य उत्पत्र करनेवाले, अपनी ओर आते देखा। उनके सारे अङ्ग भयसे काँपने पुत्र और सम्पत्तिके दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान लगे। वे भागने में भी असमर्थ हो गये। तबतक उस करनेवाले हैं। जो कार्तिकके महीने में सूर्यके तुला कालरूपी राक्षसने उन दोनोंको मार डाला। उस क्षेत्रके राशिपर रहते समय प्रातःकाल स्नान करते है, वे प्रभावसे तथा स्वयं धर्मात्मा होनेके कारण उन दोनोंको महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य मेरे पार्षदोंने वैकुण्ठ धाममें पहुंचा दिया। उन्होंने जो कार्तिकमें नान, जागरण, दीपदान और तुलसीवनका जीवनभर सूर्यपूजन आदि किया था, उस कर्मसे मैं उनके पालन करते हैं, वे साक्षात् भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। ऊपर बहुत संतुष्ट था। सूर्य, शिव, गणेश, विष्णु तथा जो लोग श्रीविष्णुमन्दिरमें झाड़ देते, स्वस्तिक आदि शक्तिके उपासक भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाका निवेदन करते और श्रीविष्णुको पूजा करते रहते हैं, वे जल सब ओरसे समुद्रमें हो जाता है, उसी प्रकार इन जीवन्मुक्त है। जो कार्तिकमें तीन दिन भी इस नियमका पाँचोंके उपासक मेरे ही पास आते हैं। मैं एक ही हूँ. पालन करते हैं, वे देवताओंके लिये वन्दनीय हो जाते तथापि लीलाके अनुसार भिन्न-भिन्न नाम धारण करके हैं। फिर जिन लोगोंने आजन्म इस कार्तिकव्रतका * सौराक्ष शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः । मामेय प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागर यथा ॥ एकोऽहं पशधा जातः क्रीडया नामभिः किल । देवदत्तो यथा कभित्पुत्राधाद्वाननामभिः ।। (१०।६३-६४)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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