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________________ • अत्रयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ___ भोजनमें मन लगाकर पहले मधुर रस ग्रहण करे, 'सूर्यश्च मा मन्युश्च' इत्यादि मन्त्रके द्वारा आचमन करे। बीचमें नमकीन और खट्टी वस्तुएँ खाय । उसके बाद सायंसन्ध्या पश्चिमाभिमुख बैठकर मौन तथा एकाग्रकड़वे और तिक्त पदार्थोको ग्रहण करे। पहले रसदार चित्त हो रुद्राक्षको माला ले तारोंके उदय होनेतक प्रणव चीजें खाय, बीचमें गरिष्ठ अन्न भोजन करे और अन्तमें और व्याहतियोसहित गायत्री-मन्त्रका जप करे। फिर पुनः द्रव पदार्थ ग्रहण करे। इससे मनुष्य कभी बल और वरुण-देवतासम्बन्धिनी ऋचाओंसे सूर्योपस्थान करके आरोग्यसे हीन नहीं होता। संन्यासीको आठ ग्रास, प्रदक्षिणा करते हुए प्रत्येक दिशा और दिक्पालको वनवासीको सोलह ग्रास और गृहस्थको बत्तीस ग्रास पृथक्-पृथक् नमस्कार करे। इस प्रकार सायंकालकी भोजन करने चाहिये। ब्रह्मचारीके लिये प्रासोंकी कोई सन्ध्योपासना करके अग्निहोत्र करनेके पश्चात् कुटुम्बके नियत संख्या नहीं है। द्विजको उचित है कि वह शास्त्र- अन्य लोगोंके साथ भोजन करे । भोजनकी मात्रा अधिक विरुद्ध भक्ष्य-भोज्यादि पदार्थोंका सेवन न करे। सूखे नहीं होनी चाहिये। भोजनके कुछ काल बाद शयन करे। और वासी अन्नको भोजन करनेके योग्य नहीं बतलाया सायंकाल और प्रातःकालमें भी बलिवैश्वदेव करना गया है। भोजनके पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे आचमन चाहिये। स्वयं भोजन न करना हो तो भी बलिवैश्वदेवका करके एकाग्रचित्त हो हाथ और मुंहकी शुद्धि करे । मिट्टी अनुष्ठान सदा ही करे; अन्यथा पापका भागी होना पड़ता और जलसे खूब मल-मलकर धोये। तदनन्तर कुल्ला है। यदि घरपर कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थ पुरुष करके दाँतोंके भीतरी भागका- उनकी सन्धियोंका अपनी शक्तिके अनुसार उसका यथोचित सत्कार करे। [तिनके आदिकी सहायतासे) शोधन करे। फिर रातमें भोजनके पश्चात् हाथ-पैर आदि धोकर गृहस्थ आचमन करके पात्रको हटा दे और कुछ भीगे हुए मनुष्य कोमल शय्यापर सोनेके लिये जाय। शय्यापर हाथसे मुख तथा नासिकाका स्पर्श करे। हथेलीसे तकियेका होना आवश्यक है। अपने घरमें सोना हो तो नाभिका स्पर्श करे । तत्पश्चात् शुद्ध एवं शान्तचित्त होकर पूर्व दिशाकी ओर सिरहाना करे और ससुरालमें सोना हो आसनपर बैठे और अपने इष्टदेवका स्मरण करे । उसके तो दक्षिण दिशाकी ओर । परदेशमें गया हुआ मनुष्य बाद पुनः आचमन करके ताम्बूल भक्षण करे। भोजन पश्चिम दिशाकी ओर सिर करके सोये। उत्तरकी ओर करके बैठा हुआ पुरुष विश्रामके बाद कुछ देरतक सिरहाना करके कभी नहीं सोना चाहिये। सोनेके पहले ब्रह्मका चिन्तन करे। दिनके छठे और सातवें भागको रात्रिसूक्तका जप और सुखपूर्वक शयन करनेवाले सन्मार्ग आदिके अविरुद्ध उत्तम शास्त्र आदिके द्वारा देवताओंका स्मरण करे। फिर एकाग्रचित्त होकर मनोरञ्जन और इतिहास-पुराणोंका पाठ करके व्यतीत अविनाशी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके रात्रिमें करे। आठवें भागमें जीविकाके कार्यमें संलग्न रहे। शयन करे । अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल उसके बाद पुनः बाह्य-सन्ध्या-सायं-सन्ध्याका समय तथा आस्तीक मुनि-ये पाँचों सुखपूर्वक शयन हो जाता है। करनेवाले हैं। माङ्गलिक वस्तुओंसे भरे हुए जलपूर्ण जब सूर्य अस्ताचलके शिखरपर पहुँच जायें, तब कलशको सिरहानेको ओर रखकर वरुण-देवता-सम्बन्धी हाथ-पैर धोकर हाथमें कुश ले एकाग्रचित्त हो वैदिक मन्त्रोंसे अपनी रक्षा करके सोये। ऋतुकालमें सायंकालीन सन्ध्योपासना करे। सूर्यके रहते-रहते ही पत्नीके साथ समागम करे। सदा अपनी स्त्रीसे हो पश्चिम सन्ध्या प्रारम्भ करे। उस समय सूर्यका आधा अनुराग रखे। पत्नीके स्वीकार करनेपर रतिको इच्छासे मण्डल ही अस्त होना चाहिये। प्राणायाम करके उसके पास जाय । पर्वके दिन उसका स्पर्श न करे। जल-देवता-सम्बन्धी म-त्रोंसे मार्जन करे। सायंकालमें रात्रिके पहले और पिछले प्रहरको वेदाभ्यासमें व्यतीत 'अप्रिक्ष मा मन्युक्ष' इत्यादि मनके द्वारा और सबेरे करे और बीचके दोनों प्रहरोंमें शयन करे। ऐसा
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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