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________________ सृष्टिखण्ड] . महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा शेतके उद्धारकी कथा . ११७ आभूषण विश्वकर्माका बनाया हुआ है। यह दिव्य पुलस्त्यजी कहते है-राजन् ! तब आभरण है और अपने दिव्य रूप एवं तेजसे जगमगा श्रीरघुनाथजीने महात्मा अगत्यके हाथसे वह दिव्य रहा है। राजेन्द्र ! आप इसे स्वीकार करके मेरा प्रिय आभूषण ले लिया, जो बहुत ही विचित्र था और सूर्यकी कीजिये; क्योंकि प्राप्त हुई वस्तुका पुनः दान कर देनेसे तरह चमक रहा था। उसे लेकर वे निहारते रहे। फिर महान् फलकी प्राप्ति बतायी गयी है। बारम्बार विचार करने लगे-ऐसे रत्न तो मैंने - श्रीरामने कहा-ब्रह्मन् ! आपका दिया हुआ विभीषणकी लङ्कामें भी नहीं देखे।' इस प्रकार दान लेना मेरे लिये निन्दाकी बात होगी। क्षत्रिय मन-ही-मन सोच-विचार करनेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने जान-बूझकर ब्राह्मणका दिया हुआ दान कैसे ले सकता महर्षि अगस्त्यसे उस दिव्य आभूषणकी प्राप्तिका वृत्तान्त है, यह बात आप मुझे बताइये। किसी आपत्तिके कारण पूछना आरम्भ किया। मुझे कष्ट हो-ऐसी बात भी नहीं है; फिर दान कैसे लूं। श्रीराम बोले-ब्रह्मन् ! यह रत्न तो बड़ा अद्भुत इसे लेकर मुझे केवल दोषका भागी होना पड़ेगा, इसमें है। राजाओंके लिये भी यह अलभ्य ही है। आपको यह तनिक भी सन्देह नहीं है। कहाँसे और कैसे मिल गया? तथा किसने इस अगस्त्यजी बोले-श्रीराम ! प्राचीन सत्ययुगमें आभूषणको बनाया है? जब अधिकांश मनुष्य ब्राह्मण ही थे, तथा समस्त प्रजा अगस्त्यजीने कहा-रघुनन्दन ! पहले त्रेतायुगमें राजासे हीन थी, एक दिन सारी प्रजा पुराणपुरुष एक बहुत विशाल वन था। इसका व्यास सौ योजनका ब्रह्माजीके पास राजा प्राप्त करनेकी इच्छासे गयी और था। किन्तु उसमें न कोई पशु रहता था, न पक्षी । उस कहने लगी-'लोकेश्वर ! जैसे देवताओंके राजा वनके मध्यभागमें चार कोस लम्बी एक झील थी, जो देवाधिदेव इन्द्र है, उसी प्रकार हमारे कल्याणके लिये भी हंस और कारण्डव आदि पक्षियोंसे संकुल थी। वहाँ मैंने इस समय एक ऐसा राजा नियत कीजिये, जिसे पूजा एक बड़े आश्चर्यकी बात देखी। सरोवरके पास ही एक और भेंट देकर सब लोग पृथ्वीका उपभोग कर सकें।' बहुत बड़ा आश्रम था, जो बहुत पुराना होनेपर भी तब देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने इन्द्रसहित समस्त अत्यन्त पवित्र दिखायी देता था, किन्तु उसमें कोई लोकपालोंको बुलाकर कहा-'तुम सब लोग अपने- तपस्वी नहीं था और न कोई और जीव भी थे। मैंने उस अपने तेजका अंश यहाँ एकत्रित करो।' तब सम्पूर्ण आश्रममें रहकर ग्रीष्मकालको एक रात्रि व्यतीत की। लोकपालोने मिलकर चार भाग दिये। वह भाग अक्षय सबेरे उठकर जब तालाबकी ओर चला तो रास्तेमें मुझे था। उससे अक्षय राजाकी उत्पत्ति हुई। लोकपालोके एक बहुत बड़ा मुर्दा दीख पड़ा, जिसका शरीर अत्यन्त उस अंशको ब्रह्माजीने मनुष्योंके लिये एकत्रित किया। हृष्ट-पुष्ट था। मालूम होता था किसी तरुण पुरुषकी उसीसे राजाका प्रादुर्भाव हुआ, जो प्रजाओंके लाश है। उसे देखकर मैं सोचने लगा-'यह कौन है ? हित-साधनमें कुशल होता है। इन्द्रके भागसे राजा इसकी मृत्यु कैसे हो गयी तथा यह इस महान् वनमें सबपर हुकूमत चलाता है। वरुणके अंशसे समस्त आया कैसे था? इन सारी बातोंका मुझे अवश्य पता देहधारियोंका पोषण करता है। कुबेरके अंशसे वह लगाना चाहिये।' मैं खड़ा-खड़ा यही सोच रहा था कि याचकोंको धन देता है तथा राजामें जो यमराजका अंश इतनेमें आकाशसे एक दिव्य एवं अद्भुत विमान उतरता है, उसके द्वारा वह प्रजाको दण्ड देता है। रघुश्रेष्ठ ! दिखायी दिया। वह परम सुन्दर और मनके समान उसी इन्द्रके भागसे आप भी मनुष्योंके राजा हुए हैं, वेगशाली था। एक ही क्षणमें वह विमान सरोवरके निकट इसलिये प्रभो ! मेरा उद्धार करनेके लिये यह आभूषण आ पहुँचा। मैंने देखा, उस विमानसे एक दिव्य मनुष्य ग्रहण कौजिये। उतरा और सरोवरमें नहाकर उस मुर्देका मांस खाने
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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