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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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कार्तिक मासका ऐसा प्रभाव है और यह आपको इतना प्रिय है कि इसमें किये हुए स्नान-दानसे कलहाके पतिद्रोह आदि पाप भी नष्ट हो गये। प्रभो! जो दूसरेका किया हुआ पुण्य है, वह उसके देनेसे तो मिल जाता है; किन्तु बिना दिया हुआ पुण्य मनुष्य किस मार्गसे पा सकता है ?
भगवान् श्रीकृष्णने कहा – प्रिये ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें देश, ग्राम और कुल भी मनुष्यके किये हुए पुण्य और पापके भागी होते हैं; परन्तु कलियुगमें केवल कर्ताको ही पुण्य और पापका फल भोगना पड़ता है। पढ़ानेसे, यज्ञ करानेसे अथवा एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करनेसे भी मनुष्य दूसरोंके पुण्य और पापका चौथाई भाग परोक्षरूपसे पा लेता है। एक आसनपर बैठने, एक सवारीपर चलने, श्वासका स्पर्श होने और परस्पर अङ्ग सट जानेसे भी निश्चय ही पुण्य-पापके छठे अंशका फलभागी होना पड़ता है। स्पर्श करनेसे, बातचीत करनेसे तथा दूसरेकी स्तुति करनेसे भी मानव पुण्य-पापके दशमांशको ग्रहण करता है। देखनेसे नाम सुननेसे तथा मनके द्वारा चिन्तन करनेसे दूसरेके पुण्य पापका शतांश भाग प्राप्त होता है जो दूसरेकी निन्दा करता, चुगली खाता और उसे धिक्कार देता है, वह उसके किये हुए पातकको स्वयं लेकर बदले में अपने पुण्यको देता है। * एक पङ्क्तिमें बैठकर भोजन करनेवाले लोगोंमेंसे जो किसीको परोसनेमें छोड़ देता है, उसके पुण्यका छठा भाग उस छोड़े हुए व्यक्तिको मिल जाता है जो स्नान और सन्ध्या आदि करते समय किसीको छूता या उससे बातचीत करता है, उसे अपने कर्मजनित पुण्यके छठे अंशको उस व्यक्तिके लिये निश्चय ही देना पड़ता है। जो धर्मके उद्देश्यसे दूसरे मनुष्यसे धनकी याचना करता है, उसके पुण्य कर्मके फलको धन देनेवाला व्यक्ति भी पाता है। जो दूसरेका धन चुराकर पुण्य कर्म करता है, उसका फल धनीको ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मिलता है, कर्म करनेवालेको नहीं जो मनुष्य दूसरेका ऋण चुकाये बिना ही मर जाता है, उसके पुण्यको धनी मनुष्य अपने धनके अनुसार बाँट लेता है। कर्म करनेकी सलाह देनेवाला, अनुमोदन करनेवाला, सामग्री जुटानेवाला तथा बलसे सहायता करनेवाला पुरुष भी पुण्यपापके छठे अंशको पा लेता है। राजा अपनी प्रजासे, गुरु शिष्यसे, पति अपनी पत्नीसे तथा पिता अपने पुत्रसे उसके पुण्य पापका छठा अंश प्राप्त करता है। स्त्री भी यदि सदा अपने पतिके मनके अनुसार चले और सदा उसे संतोष देनेवाली हो तो वह पतिके पुण्यका आधा भाग प्राप्त करती है। स्वयं धन देकर अपने नौकर या पुत्रके अतिरिक्त किसी भी दूसरेके हाथसे दान करानेवाले पुरुषके पुण्य कर्मकि छठे भागको कर्ता ले लेता है। वृत्ति देनेवाला पुरुष वृत्तिभोगीके पुण्यका छठा अंश ले लेता है; किन्तु यदि उसके बदलेमें उसने अपनी या दूसरेकी सेवा न करायी हो, तभी उसे लेनेका अधिकारी होता है। इस प्रकार दूसरोंके किये हुए पुण्य और पाप बिना दिये भी सदा आते रहते हैं। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, जो बहुत ही उत्तम और पुण्यमयी बुद्धि प्रदान करनेवाला है, उसे सुनो।
पूर्वकालकी बात है, अवन्तीपुरीमें धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मणोचित कर्मसे भ्रष्ट, पापपरायण और खोटी बुद्धिवाला था, रस, कम्बल और चमड़ा आदि बेचकर तथा झूठ बोलकर वह जीविका चलाता था। उसका मन चोरी, वेश्यागमन, मदिरापान और जुए आदिमें सदा आसक्त रहता था। एक बार वह खरीद-बिक्रीके कामले देश-देशान्तरमें भ्रमण करता हुआ माहिष्मतीपुरीमें जा पहुँचा, जिसकी चहारदीवारीसे सटकर बहनेवाली पापनाशिनी नर्मदा सदा सुशोभित होती रहती है। वहाँ कार्तिकका व्रत करनेवाले बहुत-से मनुष्य अनेक गाँवोंसे स्नान करनेके लिये आये थे । धनेश्वरने उन सबको देखा। कितने ही ब्राह्मण स्त्रान
* परस्य निन्दां पैशुन्यं धिक्कारं च करोति यः । तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः ॥ ( ११४ । १७) + स्वानसन्ध्यादिकं कुर्वन् यः स्पृशेद्वा प्रभाषते । स कर्मपुण्यषष्ठांशं दद्यात्तस्मै सुनिश्चितम् ॥ (११४ । २१ )