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________________ सृष्टिखण्ड ] • अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र उड़ती गयी। वह धूलराशि उनका साथ न छोड़ सकी। गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर गरुड़ने अपनी चोंचमें रखे हुए जलसे वहाँ अग्निमय प्राकार (परकोटे) को बुझा दिया तथा अमृतकी रक्षाके लिये जो देवता नियुक्त थे, उनकी आँखोंमें पूर्वोक्त धूल भर गयी, जिससे वे गरुड़जीको देख नहीं पाते थे। बलवान् गरुड़ने रक्षकोंको मार गिराया और अमृत लेकर वे वहाँसे चल दिये। पक्षीको अमृत लेकर आते देख ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्रने कहा- 'अहो ! पक्षीका रूप धारण करनेवाले तुम कौन हो, जो बलपूर्वक अमृतको लिये जाते हो ? सम्पूर्ण देवताओंका अप्रिय करके यहाँसे जीवित कैसे जा सकते हो।' यह सुनकर महाबाहु इन्द्रने गरुड़पर तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेरुगिरिके शिखरपर मेघ जलकी धाराएँ बरसा रहा हो। गरुड़ने अपने वज्रके समान तीखे नखोंसे ऐरावत हाथीको विदीर्ण कर डाला तथा मातलिसहित रथ और चक्कोंको हानि पहुँचाकर अग्रगामी देवताओंको भी घायल कर दिया। तब इन्द्रने कुपित होकर उनके ऊपर वज्रका प्रहार किया। वज्रकी चोट खाकर भी महापक्षी गरुड़ विचलित नहीं हुए। वे बड़े वेगसे भूतलकी ओर चले। तब इन्द्रने सब देवताओंके आगे स्थित होकर कहा - 'निष्पाप गरुड़! यदि तुम नागमाताको इस समय अमृत दे दोगे तो सारे साँप अमर हो जायँगे; अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो इस अमृतको वहाँसे हर लाऊँगा।' मैं गरुड़ बोले- मेरी साध्वी माता विनता दासीभावके कारण बहुत दुःखी है। जिस समय वह दासीपनसे मुक्त हो जाय और सब लोग इस बातको जान . लें, उस समय तुम अमृतको हर ले आना। यों कहकर महाबली गरुड़ माताके पास जा इस प्रकार बोले- माँ! मैं अमृत ले आया हूँ, इसे नागमाताको दे दो।' अमृतसहित पुत्रको आया देख विनताका हृदय हर्षसे खिल उठा। उसने कद्रूको बुलाकर अमृत दे दिया और स्वयं दासीभावसे मुक्त हो गयी। इसी बीचमें इन्द्रने सहसा पहुँचकर अमृतका घड़ा चुरा लिया और वहाँ विषका पात्र रख दिया। उन्हें ऐसा करते कोई देख न सका। कद्रूका मन बहुत प्रसन्न था। उसने पुत्रोंको वेगपूर्वक बुलाया और उनके मुखमें अमृत जैसा दिखायी देनेवाला विष दे दिया। नागमाताने पुत्रोंसे गरुड़ने कहा- देवराज! मैं तुम्हारा अमृत लिये कहा - - तुम्हारे कुलमें होनेवाले सभी सर्पेक मुखमें ये जाता हूँ, तुम अपना पराक्रम दिखाओ। अमृतकी बूँदें नित्य निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुमलोग इनसे सदा सन्तुष्ट रहो। इसके बाद गरुड़ अपने पिता मातासे वार्तालाप करके देवताओंकी पूजा कर अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुके पास चले गये। जो गरुड़के इस उत्तम चरित्रका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। १५९ - ............................................................***** ब्रह्माजी कहते हैं— ऋषियोंके मुखसे यह उपदेश और गरुड़का प्रसंग सुनकर वह पतित ब्राह्मण नाना प्रकारके पुण्य कर्मोंका अनुष्ठान करके पुनः ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुआ और तीव्र तपस्या करके स्वर्गलोकमें चला गया। सदाचारी मनुष्यका पाप प्रतिदिन क्षीण होता है और दुराचारीका पुण्य सदा नष्ट होता रहता है। अनाचारसे पतित हुआ ब्राह्मण भी यदि फिर सदाचारका सेवन करे तो वह देवत्वको प्राप्त होता है। अतः द्विज प्राणोंके कण्ठगत होनेपर भी सदाचारका त्याग नहीं करते नारद! तुम भी मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा सदाचारका पालन करो।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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