Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 986
________________ ९८३ . अर्धग्रस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण गदासे प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वज्रसे विदीर्ण बाँधकर भगवान् वासुदेवसे मिलनेके लिये परम मनोहर हुए पर्वतकी भाँति उसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया द्वारका नगरीमें आया और रुक्मिणीके अन्तःपुरके और वह प्राणहीन होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। दरवाजेपर जा क्षणभर चुपचाप खड़ा रहा । इतने में उसके दन्तवका भी योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य नित्यानन्दमय ऊपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने ब्राह्मणको आया जान सुखसे परिपूर्ण सनातन परमपदरूप भगवत्सायुज्यको आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और प्रणाम करके प्राप्त हुआ। इस प्रकार जय और विजय सनकादिके हाथ पकड़कर महलके भीतर ले जा उसे सुन्दर शापके व्याजसे केवल भगवान्को लीलामें सहयोग आसनपर बिठाया। वह बेचारा भयसे काँप रहा था। देनेके लिये संसारमें तीन बार उत्पन्न हुए और तीनों ही किन्तु भगवान्ने रुक्मिणीके हाथमें रखे हुए सुवर्णमय जन्मोंमें भगवान्के ही हाथसे उनकी मृत्यु हुई । इस तरह कलशके जलसे स्वयं ही उसके दोनों चरण धोकर तीन जन्मोंकी समाप्ति होनेपर वे पुनः मोक्षको प्राप्त हुए। मधुपर्कद्वारा उसका पूजन किया। फिर अमृतके समान " दन्तवक्त्रका वध करनेके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण मधुर अन्न-पान आदिसे ब्राह्मणको तृप्त करके उसके यमुनाके पार हो नन्दके वजमें गये और पहलेके पुराने चिथड़ेमे बँधे हुए चावलोको लेकर भगवान्ने पिता-माता नन्द और यशोदाको प्रणाम करके उन्होंने उन हंसते-हँसते उनका भोग लगाया। उन्होंने ज्यों ही उन दोनोको आश्वासन दिया। फिर नन्द और यशोदाने भी चावलोंको मुँहमें डाला, त्यों ही ब्राह्मणको प्रचुर धन, नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए भगवानको हृदयसे लगाया। धान्य, वस्त्र एवं आभूषणोंसे युक्त महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो तत्पश्चात् श्रीकृष्णने वहाँके समस्त बड़े-बूढ़े गोपोंको गया। किन्तु उस समय भगवान्से खाली हाथ विदा प्रणाम करके आश्वासन दिया और बहुमूल्य रत्न, वस्त्र होकर उसने अपने मनमें इस बातका विचार किया कि तथा आभूषण आदि देकर ब्रजके समस्त निवासियोंको 'इन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया।' निवासस्थानमें पहुँचनेपर सन्तुष्ट किया। वहाँ रहनेवाले नन्दगोप आदि सब लोग जब उसने अपने लिये धन-धान्यसे सम्पन्न गृह देखा तो तथा पशु-पक्षी और मृग आदि भी भगवान्की कृपासे उसे निश्चय हो गया कि यह सब श्रीहरिकी कृपासे ही स्त्री-पुत्रोंसहित दिव्यरूप धारण करके विमानपर बैठे प्राप्त हुआ है। ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर दिव्य वस्त्र एवं और परम वैकुण्ठधामको चले गये। इस प्रकार समस्त आभूषण आदिके द्वारा पत्नीके साथ समस्त कामनाओंका व्रजवासियोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् उपभोग किया और श्रीहरिकी प्रसन्नताके लिये नाना श्रीकृष्ण शोभामयी द्वारकापुरीमें आये, उस समय प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्हींक प्रसादसे वह आकाशमें स्थित देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे। परमधामको प्राप्त हुआ। द्वारकामें वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधनने छलपूर्वक जुआ खेलकर अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव सदा भगवान् उसीके व्याजसे पाण्डवोका सारा राज्य हड़प लिया था श्रीकृष्णका पूजन किया करते थे। वे विश्वरूपधारी और उन्हें अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया था। इससे भगवान् भांति-भाँतिके दिव्य रत्नोद्वारा निर्मित मनोहर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी गृहोंमें कल्पवृक्षके फूलोंसे सजी हुई स्वच्छ एवं कोमल पत्नी द्रौपदीके साथ महान् वनमें जाकर वहाँ बारह शय्याओंपर सोलह हजार आठ रानियोंके साथ प्रतिदिन वर्षांतक रहे। फिर एक सालतक उन्हें अज्ञातवास करना आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों श्रीकृष्ण और पड़ा। अन्तमें सब मत्स्यदेशके राजा विराटके भवनमें बलरामजीका बालसखा एवं सहपाठी एक ब्राह्मण था, एकत्रित हुए और भगवान् श्रीकृष्णको सहायताले जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीड़ित रहता था। एक दिन वह धृतराष्ट्र-पुत्रोंके साथ युद्ध करनेको आये। अनेक देशोंसे भोखमें मिला हुआ मुट्ठीभर चावल पुराने चिथड़ेमें आये हुए राजाओंके साथ परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें जुटे

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