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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भगवान् भूतनाथको सामना करनेके लिये आया देख भगवान् श्रीकृष्णने सेनाको तो बहुत दूर पीछे ही ठहरा दिया और स्वयं बलभद्र एवं प्रद्युम्नसहित निकट आकर वे हँसते-हँसते भगवान् शङ्करजीके साथ युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। पिनाक और शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाण प्रलयानिके समान भयंकर जान पड़ते थे। बलरामजी गणेशजीके साथ और प्रद्युम्र कार्तिकेयजीके साथ भिड़ गये। दोनों पक्षोंके योद्धा महान् पराक्रमी और सिंहके समान उत्कट बलवाले थे। गणेशजीने अपने दाँतसे बलरामजीकी छातीमें प्रहार किया, तब बलरामजीने मूसल उठाकर उनके दाँतपर दे मारा। मूसलकी मार पड़ते ही गणेशजीका दाँत टूट गया और वे चूहेपर चढ़कर रणभूमिसे भाग खड़े हुए। तभीसे टूटे हुए दाँतवाले गणेशजी इस लोकमें तथा देवता, दानव और गन्धर्वकि यहाँ 'एकदन्त के नामसे प्रसिद्ध हुए। कार्तिकेयजी प्रद्युम्रके साथ युद्ध कर रहे थे। हल धारण करनेवाले बलरामजीने मूसलकी मारसे शिवगणोंको युद्धभूमिसे भगा दिया।
भगवान् शिव श्रीकृष्णसे बहुत देरतक युद्ध करते रहे। इसके बाद उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके अपने बाणपर अत्यन्त प्रज्वलित तापज्वरका आधान किया और उसे भगवान् श्रीकृष्णपर छोड़ दिया; किन्तु श्रीकृष्ण शीतज्वरसे उस अस्त्रका निवारण कर दिया। इस प्रकार श्रीहरि और हरके छोड़े हुए वे दोनों ज्वर उन्होंकी आज्ञासे मनुष्यलोकमें चले गये। जो मानव श्रीहरि और शङ्करके युद्धका वृत्तान्त सुनते हैं, वे ज्वरसे
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! काशीका राजा पौण्ड्रकवासुदेव काशीपुरीके भीतर एकान्त स्थानमें बैठकर बारह वर्षोंतक बिना कुछ खाये पिये मेरी आराधनायें संलग्न हो पञ्चाक्षर मन्त्रका जप करता रहा। उस समय वह अपने नेत्ररूपी कमलसे मेरी पूजा करता था। तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगनेके
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मुक्त होकर नीरोग हो जाते हैं।
इसके बाद दैत्यराज बाणासुर रथपर सवार हो भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु भगवान्ने अपने चक्रसे उसकी भुजाएँ काट डालीं। यह देख भगवान् शङ्करने कहा- 'प्रभो ! यह बाणासुर राजा बलिका पुत्र है। मैंने इसे अमरत्वका वरदान दिया है। यदुश्रेष्ठ ! आप मेरे उस वरदानकी रक्षा करें और इस बलिकुमारके अपराधोंको क्षमा कर दें।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने चक्रको समेट लिया और प्राणोंके सङ्कटमें पड़े हुए बाणासुरको छोड़ दिया। उसको छुड़ाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले भगवान् शङ्कर वृषभपर सवार हो कैलासपर चले गये। फिर बाणासुरने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको नमस्कार किया और उन दोनोंके साथ नगरमें जाकर अनिरुद्धको बन्धनसे मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् उसने दिव्य वस्त्राभूषणोंसे पूजा करके कृष्णपौत्र अनिरुद्धको अपनी कन्या ऊषाका दान कर दिया। अनिरुद्धका विधिपूर्वक विवाह हो जानेके पश्चात् बाणासुरने प्रद्युम्नसहित बलराम और श्रीकृष्णका भी पूजन किया। फिर भगवान् जनार्दन ऊषा और अनिरुद्धको एक दिव्य रथपर बिठाकर द्वारकाकी ओर प्रस्थित हुए। बलराम, प्रद्युम्र और सेनाके साथ श्रीहरिने अपनी रमणीय पुरीमें प्रवेश किया। वहाँ अनिरुद्ध अनेक रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर भवनमें बाणपुत्री ऊषाके साथ भाँति-भाँति के भोगोंका उपभोग करते हुए निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे ।
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पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको
ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
लिये कहा। वह बोला- 'मुझे वासुदेवके समान रूप प्रदान कीजिये।' यह सुनकर मैंने उसे शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसहित चार भुजाएँ, कमलदलके समान विशाल नेत्र किरीट, मणिमय कुण्डल, पीत वस्त्र तथा कौस्तुभमणि आदि चिह्न प्रदान किये। अब वह अपनेको वासुदेव बताकर सब लोगोंको मोहमें डालने लगा । एक