Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 983
________________ उत्तरखण्ड . अनिरुद्धका अखाके साथ विवाह . ९८३ 'सखी ! क्या कारण है कि तुम्हारा मन विक्षिप्त-सा हो सेवकोको मारा गया देख दैत्यराज बाणासुरको रहा है ?' ऊषाने स्वप्नमें मिले हुए पतिके विषयकी सारी अनिरुद्धके विषयमें बड़ा कौतूहल हुआ। इतनेमें ही बातें सच-सच बता दी। देवर्षि नारदने आकर बताया कि ये श्रीकृष्णके पौत्र चित्रलेखाने सम्पूर्ण देवताओं और श्रेष्ठ मनुष्योंके अनिरुद्ध हैं। यह सुनकर धनुष ले वह स्वयं ही चित्र वस्त्रपर अङ्कित करके ऊषाको दिखलाये। अनिरुद्धको पकड़नेके लिये उनके समीप आया। हजार यदुकुलमें जो श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम और अनिरुद्ध भुजाओंसे युक्त दैत्यराजको युद्धके लिये आते देख आदि सुन्दर पुरुष थे, उनके चित्र भी उसने ऊषाके अनिरुद्धने भी एक परिघ घुमाकर बाणासुरके ऊपर सामने प्रस्तुत किये। ऊषाने उनमेंसे श्रीकृष्णको उससे फेंका; किन्तु उसने बाण मारकर उस परिघको काट मिलता-जुलता पाया। अतः उन्हींकी परम्परामें उनके दिया। तत्पश्चात् सर्पास्त्रसे अनिरुद्धको अच्छी तरह होनेका अनुमान करके उसने उधर ही दृष्टिपात किया। बाँधकर दैत्यराजने उन्हें अन्तःपुरमें ही कैद कर लिया। श्रीकृष्णके बाद प्रद्युम्न और प्रधुम्रके बाद अनिरुद्धको इधर देवर्षि नारदके मुखसे यह सारा समाचार देखकर वह सहसा बोल उठी-'यही है, यही है ऐसा ज्यों-का-त्यों जानकर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलदेवजी, कहकर उसने अनिरुद्धके चित्रको हृदयसे लगा लिया। प्रद्युम्न तथा अपनी सेनाके साथ पक्षिराज गरुड़पर तव चित्रलेखा दैत्योंकी बहुत-सी मायाविनी स्त्रियोंको आरूढ़ हो बाणासुरके बाहुबलका उच्छेद करनेके लिये साथ ले द्वारकामें गयी और रातके समय अन्तःपुरमें आ पहुँचे। पूर्वकालमें बलिपुत्र बाणासुरने भगवान् सोये हुए अनिरुद्धको मायासे मोहित करके बाणासुरके शङ्करकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान् महलमें लाकर ऊषाकी शय्यापर सुला दिया। जागनेपर शङ्करने उसे वर माँगनेको कहा । तब उसने महेश्वरसे यही अनिरुद्धने अपनेको अत्यन्त रमणीय और स्वच्छ वर माँगा था कि 'आप मेरे नगर-द्वारपर सदा रक्षाके पलंगपर सोया हुआ पाया। पास ही समस्त शुभ लिये मौजूद रहें और जो शत्रुओंकी सेना आवे, उसका लक्षणोंसे सम्पन्न विचित्र आभूषण, वस्त्र, गन्ध और संहार करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् शंकरने उसकी माला आदिसे अलङ्कत तथा सुवर्णके समान रंग और प्रार्थना स्वीकार की तथा वे अपने पुत्र और पार्षदोंके सुन्दर केशोवाली ऊषा बैठी हुई थी। तदनन्तर ऊषाकी साथ अस्त्र-शस्त्र लिये उसके नगर-द्वारपर सदा प्रसन्नतासे अनिरुद्ध उसके साथ रहने लगे। विराजमान रहने लगे। उस समय जब भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार लगातार एक मासतक अनिरुद्ध ऊषाके यादवोंकी बहुत बड़ी सेनाको साथ लेकर वहाँ आये तो साथ महलमें रहे। एक दिन अन्तःपुरमें रहनेवाली कुछ उन्हें देखकर भगवान् शंकर भी वृषभपर आरूढ़ हो सब बूढ़ी स्त्रियोंने उन्हें देख लिया और राजा बाणासुरको प्रकारके अस्त्र-शव लिये अपने पुत्र और पार्षदोंसहित इसकी सूचना दे दी। यह समाचार सुनते ही राजाको युद्धके लिये निकले । वे हाथीका चमड़ा पहने, कपाल आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने अत्यन्त विस्मित धारण किये, सब अङ्गोंमें विभूति रमाये और प्रज्वलित होकर अपने सेवकोंको भेजा और यह आदेश दिया कि सपोका आभूषण पहने शोभा पा रहे थे। उनका श्रीअङ्ग 'उसे यहीं पकड़ लाओ।' सेवक राजाके महलपर चढ़ पिङ्गल वर्णका था। उनके तीन नेत्र थे। वे अपने हाथमें गये और राजकुमारीके शयनागारमें सोये हुए अनिरुद्धको त्रिशूल लिये हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण भूतगणोंका संगठन पकड़नेके लिये आगे बढ़े। अपनेको पकड़नेके लिये कर रखा था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भयदायक आते देख अनिरुद्धने खिलवाड़में ही महलका एक प्रतीत होते थे। उनका तेज प्रलयकालीन अग्निके समान खम्भा उखाड़ लिया और उसीसे मार-मारकर दो ही जान पड़ता था। वे अपने दोनों पुत्रों और समस्त घड़ीमें उन सबका कचूमर निकाल डाला। अपने पार्षदोंके साथ उपस्थित थे। त्रिपुरका नाश करनेवाले उन

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