Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 981
________________ उत्तरखण्ड ] · भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तक-कथा, नरकासुर-वंध तथा पारिजातहरण. डाला, देवताओंको अभयदान दे विनतानन्दन गरुड़का स्मरण किया। सर्वदेववन्दित महाबली गरुड़ उसी समय भगवान् के सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गये। भगवान् सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए उस राक्षसके नगरमें गये। जैसे आकाशमें सूर्यका मण्डल देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार उसका नगर भी उद्भासित हो रहा था। उसमें दिव्य आभूषण धारण किये बहुत-से राक्षस निवास करते थे। वह नगर देवताओंके लिये भी दुर्भेद्य था। भगवान् ने उसके कई आवरण देख चक्रसे उन्हें काट ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं। आवरण कट जानेपर समस्त राक्षस शूल उठाये सैकड़ों और हजारोंके झुंड बनाकर युद्धके लिये चले । विजयकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर तोमर, भिन्दिपाल और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णपर प्रहार करने लगे। तब भगवान् श्रीकृष्णने भी शार्ङ्गधनुष लेकर उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंको काट डाला" तथा अनिके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबका संहार आरम्भ किया। इस प्रकार समस्त राक्षस मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सम्पूर्ण दानवोंका वध करके कमलनयन भगवान् पुरुषोत्तमने पाञ्चजन्य नामक महान् शङ्ख बजाया । शङ्खनाद सुनकर पराक्रमी दैत्य नरकासुर दिव्य रथपर आरूढ़ हो भगवान्से युद्ध करनेके लिये आया उन दोनोंमें अत्यन्त भयङ्कर घमासान युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वे दोनों बरसते हुए मेघोंकी भाँति हजारों बाणोंकी झड़ी लगा रहे थे। इसी बीचमें सनातन भगवान् वासुदेवने अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उस राक्षसका धनुष काट दिया और उसकी छातीपर महान् दिव्यास्त्रका प्रहार किया। उससे हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वह महान् असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब भूमिकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्ण उस राक्षसके समीप गये और बोले— 'तुम कोई वर माँगो' यह सुनकर राक्षसने गरुड़पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा'सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीकृष्ण ! मुझे वरदानकी कोई ९८१ आवश्यकता नहीं। फिर भी दूसरे लोगोंके हितके लिये आपसे एक उत्तम वर माँगता हूँ। मधुसूदन । जो मनुष्य मेरी मृत्युके दिन माङ्गलिक स्नान करें, उन्हें कभी नरककी प्राप्ति न हो।' 'एवमस्तु' कहकर भगवान्‌ने उसे वह वर दे दिया। नरकासुरने ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंद्वारा पूजित, वज्र एवं वैदूर्यमणिसे बने हुए नूपुरोंसे सुशोभित तथा शरत्कालके खिले हुए कमलसदृश कोमल भगवच्चरणका दर्शन करते हुए अपने प्राणोंका परित्याग किया और श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महर्षि आनन्दमग्न हो भगवान्‌के ऊपर फूलोंकी वर्षा और स्तुति करने लगे। इसके बाद कमलनयन श्रीकृष्णने नरकासुरके नगरमें प्रवेश किया और उसने बलपूर्वक जो देवताओंका धन लूट लिया था, वह सब उन्हें वापस कर दिया। देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी और दीप्तिमान् मणिमय पर्वत — ये सारी वस्तुएँ भगवान्‌ने इन्द्रको दे दीं। बलवान् नरकासुरने समस्त राजाओंको जीतकर सभी राष्ट्रोंसे जो सोलह हजार कन्याओंका अपहरण किया था, वे सब की सब उसके अन्तः पुरमें कैद थीं। सैकड़ों कामदेवकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले महापराक्रमी श्रीकृष्णको देखकर उन सबने उन्हें अपना पति बना लिया। तब अनन्त रूप धारण करनेवाले भगवान् गोविन्दने एक ही लग्नमें उन सबका पाणिग्रहण किया। नरकासुरके सभी पुत्र पृथ्वीदेवीको आगे करके भगवान् गोविन्दकी शरणमें गये। तब दयानिधान भगवान्ने उन सबकी रक्षा की और पृथ्वीके वचनोका आदर करते हुए उन्हें नरकासुरके राज्यपर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन सभी सुन्दरी स्त्रियोंको इन्द्रके विमानपर बिठाकर देवदूतोंके साथ द्वारकामें भेज दिया। इसके बाद सत्यभामाके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाताका दर्शन करनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। अमरावतीपुरीमें पहुँचकर महाबली श्रीकृष्ण पत्नीसहित गरुड़से उतरे और देवताओंकी वन्दनीया माता अदितिके चरणोंमें उन्होंने प्रणाम किया।

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