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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव होष स्यमन्तकः ॥ (२७६ । १९) 'प्रसेनको सिंहने मारा और सिंह जाम्बवान्के हाथसे मारा गया है। सुन्दर कुमार रोओ मत। यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी ही है।'
यह सुनकर प्रतापी वासुदेवने शङ्ख बजाया। वह महान् शङ्खनाद सुनकर जाम्बवान् बाहर निकले। फिर उन दोनोंमें लगातार दस राततक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरेको वज्रके समान मुकोंसे मारते थे। वह युद्ध समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था । श्रीकृष्णके बलकी वृद्धि और अपने बलका हास देखकर जाम्बवान्को भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके कहे हुए पूर्वकालके वचनोंका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे-ये ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, जो धर्मकी रक्षाके लिये पुनः इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरे नाथ मेरा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ऐसा सोचकर ऋक्षराजने युद्ध बंद कर दिया और हाथ जोड़कर विस्मयसे पूछा- आप कौन हैं? कैसे यहाँ पधारे हैं ?' तब भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर वाणीमें कहा- 'मैं वसुदेवका पुत्र हूँ। मेरा नाम वासुदेव है। तुम मेरी स्यमन्तक नामक मणि हर ले आये हो। उसे शीघ्र लौटा दो, नहीं तो अभी मारे जाओगे।' यह सुनकर जाम्बवान्को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्को प्रणाम किया और विनीत भावसे कहा - 'प्रभो! आपके दर्शनसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। देवकीनन्दन ! पहले अवतारसे ही मैं आपका दास हूँ। गोविन्द ! पूर्वकालमें जो मैंने युद्धकी अभिलाषा की थी, उसीको आज आपने पूर्ण किया है। जगन्नाथ ! करुणाकर! मैंने मोहवश अपने स्वामीके साथ जो यह युद्ध किया है, उसे आप क्षमा करें।'
ऐसा कहकर जाम्बवान् पैरोंमें पड़ गये और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने भगवान्को रत्नमय सिंहासनपर विनयपूर्वक बिठाया। फिर शरत्कालके कमलसदृश सुन्दर एवं कोमल चरणोंको उत्तम जलसे पखारकर
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मधुपर्ककी विधिसे उन यदुश्रेष्ठका पूजन किया। दिव्य वस्त्र और आभूषण भेंट किये। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके अमित तेजस्वी भगवान्को अपनी जाम्बवती नापवाली लावण्यमयी कन्या पत्नीरूपसे दान कर दी । साथ ही अन्यान्य श्रेष्ठ मणियोसहित स्यमन्तकमणि भी दहेजमें दे दी। विपक्षी वीरोंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने वहीं प्रसन्नतापूर्वक जाम्बवतीसे विवाह किया। और जाम्बवान्को उत्तम मोक्ष प्रदान किया। फिर जाम्बवतीको साथ ले गुफासे बाहर निकलकर वे द्वारकापुरीको गये। वहाँ पहुँचकर यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने सत्राजित्को स्यमन्तकमणि दे दी और सत्राजित्ने उसे अपनी कन्या सत्यभामाको दे दिया। भादोंके शुक्लपक्षमें चतुर्थीको चन्द्रमाका दर्शन करनेसे झूठा कलङ्क लगता है अतः उस दिन चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये । यदि कदाचित् उस तिथिको चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो इस स्यमन्तकमणिकी कथा सुननेपर मनुष्य मिथ्या कलङ्कसे छूट जाता है। मद्रराजकी तीन कन्याएँ थींसुलक्ष्मणा, नामजिती और सुशीला इन तीनोंने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णका वरण किया और एक ही दिन भगवान्ने उन तीनोंके साथ विवाह किया। इस महात्मा श्रीकृष्णके रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, जाम्बवती, नानजिती, सुलक्ष्मणा और सुशीला – ये आठ पटरानियाँ थीं।
प्रकार
नरकासुर नामक एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जो भूमिसे उत्पन्न हुआ था। उसने देवराज इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंको युद्धमें जीतकर देवमाता अदितिके दो तेजस्वी कुण्डल छीन लिये थे। साथ ही देवताओंके भाँति-भाँतिके रत्न, इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कुबेरके मणिमाणिक्य आदि तथा पद्मनिधि नामक शङ्ख भी ले लिये थे। वह आकाशमें विचरण करनेवाला था और आकाशमें ही नगर बनाकर उसके भीतर निवास करता था। एक दिन सम्पूर्ण देवता उसके भयसे पीड़ित हो शचीपति इन्द्रको आगे करके अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी शरण में गये। श्रीकृष्णने भी नरकासुरकी सारी चेष्टाएँ सुनकर