Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 979
________________ उत्तरखण्ड ] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तक-कथा, नरकासुर वध तथा पारिजातहरण ****** प्रसन्न हुए। उन नूतन दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने ग्रन्थिबन्धनपूर्वक एक साथ अग्निदेवको प्रणाम किया। वेदोंके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने आशीर्वादके द्वारा उनका अभिनन्दन किया। उस समय विवाहकी वेदीपर बैठे हुए वर और वधूकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्नीसहित श्रीकृष्णने ब्राह्मणों, राजाओं और बड़े भाई बलरामजीको प्रणाम किया। इस प्रकार समस्त वैवाहिक कार्य सम्पन्न उस वैवाहिक महोत्सवमें सम्मानित होकर वे सभी बड़े करके भगवान् श्रीकृष्णने विवाहोत्सवमें पधारे हुए समस्त राजाओंको विदा किया। उनसे सम्मानित एवं विदा होकर श्रेष्ठ राजा तथा महात्मा ब्राह्मण अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। इसके बाद धर्मात्मा भगवान् देवकीनन्दन रुक्मिणी देवीके साथ दिव्य अट्टालिकामें बड़े सुखसे रहने लगे। मुनि और देवता उनकी स्तुति किया करते थे। उस शोभामयी द्वारकापुरीमें सनातन भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन सन्तुष्टचित्त होकर सदा आनन्दमय रहते थे। ―――― · - ★ भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण महादेवजी कहते हैं— पार्वती ! सत्राजित्के एक यशस्विनी कन्या थी, जो भूदेवीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका नाम था (सत्या) सत्यभामा । सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णकी दूसरी पत्नी थीं। तीसरी पत्नी सूर्यकन्या कालिन्दी थीं, जो लीलादेवीके अंशसे प्रकट हुई थीं विन्दानुविन्दकी पुत्री मित्रविन्दाको स्वयंवरसे ले आकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके साथ विवाह किया। वहाँ सात महाबली बैलोंको, जिनका दमन करना बहुत ही कठिन था, भगवान्ने एक ही रस्सीसे नाथ दिया और इस प्रकार पराक्रमरूपी शुल्क देकर उसका पाणिग्रहण किया। राजा सत्राजित् के पास स्यमन्तक नामक एक बहुमूल्य मणि थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई महात्मा प्रसेनको दे रखा था। एक दिन भगवान् मधुसूदनने वह श्रेष्ठ मणि प्रसेनसे माँगी। उस समय प्रसेनने बड़ी धृष्टताके साथ उत्तर दिया- 'यह मणि प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देती है; अतः इसे मैं किसीको नहीं दे सकता।' प्रसेनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो रहे। ९७९ एक दिनकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेन आदि समस्त महाबली यादवोंके साथ शिकार खेलनेके लिये बड़े भारी वनमें गये। प्रसेन अकेले ही उस घोर वनमें बहुत दूरतक चले गये। वहाँ एक सिंहने उन्हें मारकर वह मणि ले ली। फिर उस सिंहको महाबली जाम्बवान्ने मार डाला और उस मणिको लेकर वे शीघ्र ही अपनी गुफामें चले गये। उस गुफामें दिव्य स्त्रियाँ निवास करती थीं। उस दिन सूर्यास्त हो जानेपर भगवान् वासुदेव अपने अनुचरोंके साथ चले मार्गमें उन्होंने चतुर्थीक चन्द्रमाको देख लिया। उसके बाद अपने नगरमें प्रवेश किया। तदनन्तर समस्त पुरवासी श्रीकृष्णके विषयमें एकदूसरेसे कहने लगे- 'जान पड़ता है, गोविन्दने प्रसेनको वनमें ही मारकर बेखटके मणि ले ली है। उसके बाद ये द्वारकामें आये हैं।' द्वारकावासियोंकी यह बात जब भगवान्के कानोंमें पड़ी तो वे मूर्खलोगोंके द्वारा उठाये हुए अपवादके भयसे पुनः कुछ यदुवंशियोंको साथ ले गहन वनमें गये। वहाँ सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेनकी लाश पड़ी थी, जिसे भगवान्‌ने सबको दिखाया। इस प्रकार प्रसेनकी हत्याके झूठे कलङ्कको मिटाकर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी सेनाको वहीं ठहरा दिया तथा हाथमें शार्ङ्गधनुष और गदा लिये वे अकेले ही गहन वनमें घुस गये। वहाँ एक बहुत बड़ी गुफा देखकर श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। उस गुफाके भीतर एक स्वच्छ भवन था, जो नाना प्रकारकी श्रेष्ठ मणियोंसे जगमगा रहा था। वहाँ एक घायने जाम्बवान् के पुत्रको पालनेमें सुलाकर उसके ऊपरी भागमें मणिको बाँधकर लटका दिया था और पालनेको धीरे-धीरे लीलापूर्वक डुलाती हुई वह लोरियाँ गा रही थी । गाते-गाते वह निम्म्राङ्कित श्लोकका उच्चारण कर रही थी—

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