Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 987
________________ उत्तरखण्ड ] ---------------- • पौण्ड्रक आदिका वध, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार • ------------- ९८७ ...........................................................................................................................********* हुए पाण्डवों और धृतराष्ट्र-पुत्रोंमें बहुत बड़ा संग्राम हुआ, जो देवताओंके लिये भी भयंकर था। उसमें श्रीकृष्णने अर्जुनके सारथिका काम किया और अपनी शक्ति अर्जुनमें स्थापित करके उनके द्वारा ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंसहित दुर्योधन, भीष्म, द्रोण तथा अन्यान्य राजाओंका वध कराकर उन्होंने पाण्डवोंको अपने राज्यपर स्थापित कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतारकर भगवान्ने द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। गया । तदनन्तर कुछ कालके बाद एक वैदिक ब्राह्मण अपने मरे हुए पाँच वर्षके बालकको लेकर द्वारकामें राजाके द्वारपर रखकर बहुत विलाप करने लगा। उसने श्रीकृष्णके प्रति बहुत आक्षेपयुक्त वचन कहे। श्रीकृष्ण उस आक्षेपको सुनकर भी चुप रहे। ब्राह्मण कहता - 'मेरे पाँच पुत्र पहले मर चुके हैं। यह छठा पुत्र है। यदि श्रीकृष्ण मेरे इस पुत्रको जीवित नहीं करेंगे तो मैं इस राजद्वारपर प्राण दे दूंगा।' इसी समय अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारकामें आये। वहाँ उन्होंने पुत्रशोकसे विलाप करते हुए ब्राह्मणको देखा उसका पाँच वर्षका बालक कालके मुखमें चला गया है, यह देखकर अर्जुनको बड़ी दया आयी। उन्होंने ब्राह्मणको अभयदान देकर प्रतिज्ञा की— 'मैं तुम्हारे पुत्रको जीवित कर दूंगा।' उनसे आश्वासन पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उन्होंने मन्त्र पढ़कर अनेक सञ्जीवनास्त्रोंका प्रयोग किया; किन्तु वह बालक जीवित न हुआ। इससे अपनी प्रतिशा झूठी होती देख अर्जुनको बड़ा शोक हुआ और उन्होंने उस ब्राह्मणके साथ ही प्राण त्याग देनेका विचार किया। यह सब जानकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरसे बाहर निकले और उस वैदिक ब्राह्मणसे बोले - 'मैं तुम्हारे सभी पुत्रोंको ला दूंगा।' ऐसा कहकर उसे आश्वासन दे अर्जुनसहित गरुड़पर आरूढ़ हो वे विष्णुलोकमें गये। वहाँ दिव्य मणिमय मण्डपमें श्रीलक्ष्मीदेवीके साथ बैठे हुए भगवान् नारायणको देखकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने उन्हें नमस्कार किया। भगवान्‌ने उन दोनोंको अपनी भुजाओंमें कस लिया और पूछा—'तुम दोनों किस लिये आये हो ?' श्रीकृष्णने कहा- 'भगवन्! मुझे वैदिक ब्राह्मणके पुत्रोंको दे दीजिये।' तब भगवान् नारायणने वैसी ही अवस्थामें स्थित अपने लोकमें विद्यमान ब्राह्मणपुत्रोंको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। श्रीकृष्ण भी उन्हें गरुड़के कंधेपर बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनसहित स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और आकाशमें देवताओंके मुँहसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकापुरीमें आये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मणके छः पुत्र उन्हें समर्पित कर दिये तब वह अत्यन्त हर्षमें भरकर श्रीकृष्णको अभ्युदयकारक आशीर्वाद देने लगा। अर्जुनकी भी प्रतिज्ञा सफल हुई; इसलिये उनको भी बड़ा हर्ष था। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके महाराज युधिष्ठिरद्वारा पालित अपनी पुरीकी राह ली। श्रीकृष्णके सोलह हजार रानियोंके गर्भसे कुल अयुत सहस्र (एक करोड़) पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस विषयमें कहते हैं— 'श्रीकृष्णके एक करोड़ आठ सौ पुत्र थे। उन सबमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युन ही बड़े थे, असंख्य यदुवंशियोंसे यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी । एक दिन समस्त यादवकुमार घूमनेके लिये नर्मदातटपर गये। वहाँ महर्षि कण्व तपस्या कर रहे थे। यादवकुमारोंने जाम्बवतीके पुत्र साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर उसके पेटमें एक लोहेका मूसल बाँध दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषिके समीप आकर सबने नमस्कार किया और स्त्रीरूपधारी साम्बको आगे खड़ा करके पूछा—'मुने! बताइये इस स्त्रीके गर्भमें कन्या है या पुत्र ?' मुनिने मन-ही-मन सब बात जानकर क्रोधपूर्वक कहा- -'अरे! तुम सब लोग इसी मूसलसे मारे जाओगे।' यह सुनकर सबका हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्होंने श्रीकृष्णके पास आकर महर्षिकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। श्रीकृष्णने उस लोहेके मूसलको चूर्ण करके कुण्डमें डलवा दिया। उस चूर्णसे वज्रके समान कठोर बड़े-बड़े सरकंडे उग आये। मूसलके चूर्ण होनेसे एक लोहा बच गया था, जो कनिष्ठिका अंगुलीके बराबर था। उसको एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्यको निषादने पकड़ा और उसके पेटसे उस मूसलावशेष

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