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उत्तरखण्ड ]
• पौण्डक आदिका वध, सुदामाको ऐश्वर्य-प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार .
दिन अभिमान और बलसे उन्मत्त हुए काशिराजके पास जरासन्धकी पुरीमें गये और वहाँ ब्राह्मणका वेष धारण देवर्षि नारदने आकर कहा-'मूढ़ ! वसुदेवनन्दन करके उन सबने राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। उन्हें श्रीकृष्णपर विजय पाये बिना तू वासुदेव नहीं हो सकता।' देखकर जरासन्धने साष्टाङ्ग प्रणाम किया और योग्य इतना सुनते ही वह उसी समय श्रीकृष्णको जीतनेके लिये आसनोंपर बिठाकर मधुपर्ककी विधिसे उनका पूजन गरुड़पताकासे युक्त रथपर आरूढ़ हो चारो अङ्गोंसे युक्त करके कहा-'द्विजवरो! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा करके द्वारकामें जा पहुँचा। आपलोग किस लिये मेरे समीप पधारे हैं ? उसे बताये। वहाँ नगरद्वारपर सुवर्णमय रथमें बैठे हुए पौण्ड्क ने मैं आपलोगोंको सब कुछ दूंगा।' तब उनमेंसे भगवान् श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और यह सन्देश दिया कि 'मैं श्रीकृष्णने हंसकर कहा- 'राजन् ! हम क्रमशः वासुदेव हूँ तथा युद्धके लिये यहाँ आया हूँ। मुझपर श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन हैं तथा युद्धके लिये विजय पाये बिना तुम वासुदेव नहीं कहला सकते। तुम्हारे पास आये हैं। हममें से किसी एकको द्वन्द्र-युद्धके उसका सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ लिये स्वीकार करो।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने उनकी हुए और पौण्ड्रकसे युद्ध करनेके लिये नगरद्वारपर आये। बात मान ली और द्वन्द्र-युद्धके लिये भीमसेनका वरण वहाँ उन्होंने अक्षौहिणी सेनाके साथ रथपर बैठे हुए शङ्क, किया। फिर तो भीमसेन और जरासन्ध अत्यन्त चक्र, गदा और पा धारण करनेवाले पौण्ड्कको देखा। भयंकर मल्लयुद्ध हुआ, जो लगातार सत्ताईस दिनोंतक फिर तो शाधनुष हाथमे ले प्रलयाग्निके समान तेजस्वी चलता रहा। उसके बाद श्रीकृष्णके संकेतसे भीमसेनने वाणोंसे रथ, हाथी, घोड़े और पैदलसहित उसकी बहुत उसके शरीरको चीर डाला और दो टुकड़े करके उसे बड़ी अक्षौहिणी सेनाको भगवान्ने दो ही घड़ीमें भस्म कर पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भौमके द्वारा झला । एक वाणसे उसके हाथोंमें चिपके हुए शङ्ख, चक्र जरासन्धका वध कराकर उसके कैद किये हुए और गदा आदि शस्त्रोंको भी लीलापूर्वक काट दिया। राजाओंको भी भगवान्ने मुक्त किया। वे राजा भगवान् फिर पवित्र सुदर्शनचक्रसे उसके किरीट-कुण्डलयुक्त मधुसूदनको प्रणाम और उनकी स्तुति करके उनके द्वारा मस्तकको काटकर उन्होंने काशीके अन्तःपुरमें गिरा सुरक्षित हो अपने-अपने देशोंको चले गये। दिया। उस मस्तकको देखकर समस्त काशीनिवासी बहुत तदनन्तर भगवान् वासुदेवने भीमसेन और अर्जुनके विस्मित हुए।
साथ इन्द्रप्रस्थमें जाकर महाराज युधिष्ठिरसे राजसूय उधर मगधराज जरासन्ध कंसवधके पश्चात् नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कराया। यज्ञ समाप्त यादवोंसे द्वेषभाव रखते हुए ही उन्हें सदा पीड़ा दिया होनेपर युधिष्ठिरने भीष्मजीकी अनुमतिसे अग्रपूजाका करता था। इससे दुःखित होकर यादवोंने श्रीकृष्णसे अधिकार श्रीकृष्णको ही दिया-सर्वप्रथम उन्हींकी पूजा उसकी चेष्टाएँ बतलायीं। तब भगवान् श्रीकृष्णने की। उस समय शिशुपालने श्रीकृष्णके प्रति बहुत-से भीमसेन और अर्जुनको बुलाकर परामर्श किया-'इस आक्षेपयुक्त वचन कहे। तब श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्रके जरासन्धने महादेवजीकी आराधना की है; अतः उनकी द्वारा उसका मस्तक काट डाला। वह तीन जन्मोंकी कृपासे यह शस्त्रोद्वारा नहीं मारा जा सकता। किन्तु समाप्तिके बाद उस समय श्रीहरिके सारूप्यको प्राप्त किसी-न-किसी प्रकार इसका वध करना आवश्यक हुआ। शिशुपालको मारा गया सुनकर दन्तवका है।' फिर कुछ सोचकर भगवान्ने भीमसेनसे कहा- श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये मथुरा में गया। यह सुनकर 'तुम उसके साथ मल्लयुद्ध करो।' भीमसेनने ऐसा श्रीकृष्ण भी मथुरामें ही उससे युद्ध करनेके लिये गये। करनेकी प्रतिज्ञा की। तब सम्पूर्ण चराचर जगत्के वहाँ मथुरापुरीके दरवाजेपर यमुनाके किनारे उन दोनोंमें वन्दनीय भगवान् वासुदेव भीम और अर्जुनको साथ ले दिन-रात युद्ध होता रहा । अन्तमें श्रीकृष्णने दन्तवापर