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___• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
तीनों लोक माँगकर इन्द्रको देनेकी कृपा करें। साथ ब्राह्मणके दोनों चरण पखारे और हाथमें जल लेकर
देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन यज्ञ- विधिपूर्वक भूमिदानका संकल्प किया। दान दे, नमस्कार शालामें महर्षियोंके साथ बैठे हुए राजा बलिके पास करके दक्षिणारूपसे धन दिया और प्रसन्न होकर कहाआये। ब्रह्मचारीको आया देख दैत्यराज सहसा उठकर 'ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपनेको धन्य खड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले-'अभ्यागत सदा और कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपने इच्छानुसार इस विष्णुका ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही पृथ्वीको ग्रहण कीजिये।' यहाँ पधारे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारीको फूलोंके तब भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिसे कहाआसनपर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और 'राजन् ! मैं तुम्हारे सामने ही अब पृथ्वीको नापता हूँ।' चरणोंमें गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणीमें कहा- ऐसा कहकर परमेश्वरने वामन ब्रह्मचारीका रूप त्याग 'विप्रवर ! आपका पूजन करके आज मैं धन्य और दिया और विराट रूप धारण करके इस पृथ्वीको ले कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल है। कहिये मैं लिया। समुद्र, पर्वत, द्वीप, देवता, असुर और आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूं? द्विजश्रेष्ठ ! आप मनुष्योंसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास कोटि योजन जिस वस्तुको पानेके उद्देश्यसे मेरे पास पधारे हैं, उसे है। किन्तु उसे भगवान् मधुसूदनने एक ही पैरसे नाप शीघ्र बताइये। मैं अवश्य दूंगा।' का लिया। फिर दैत्यराजसे कहा-'राजन् ! अब क्या
वामनजी बोले-महाराज ! मुझे तीन पग भूमि करूँ ?' भगवान्का वह विराट् रूप महान् तेजस्वी था दे दीजिये; क्योंकि भूमिदान सब दानोंमें श्रेष्ठ है। जो और महात्मा ऋषियों तथा देवताओंके हितके लिये प्रकट भूमिका दान करता और जो उस दानको ग्रहण करता है, हुआ था। मैं तथा ब्रह्माजी भी उसे नहीं देख सकते थे। वे दोनों ही पुण्यात्मा है। वे दोनों अवश्य ही स्वर्गगामी भगवान्का वह पग सारी पृथ्वीको लाँधकर सौ योजनतक होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमिका दान कीजिये। आगे बढ़ गया। उस समय सनातन भगवान्ने दैत्यराज
यह सुनकर राजा बलिने प्रसत्रतापूर्वक कहा- बलिको दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने 'बहुत अच्छा। तत्पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भूमिदानका स्वरूपका दर्शन कराया। भगवान्के विश्वरूपका दर्शन विचार किया । दैत्यराजको ऐसा करते देख उनके पुरोहित करके दैत्यराज बलिके हर्षकी सीमा न रही। उनके नेत्रोंमें शुक्राचार्यजी बोले-'राजन् ! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान्को हैं। देवताओंकी प्रार्थनासे यहाँ पधारे हैं और तुम्हें नमस्कार करके स्तोत्रोद्वारा उनकी स्तुति की और चकमेमें डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः प्रसन्नचित्तसे गद्गदवाणीमें कहा- 'परमेश्वर ! आपका इन महात्माको पृथ्वीका दान न देना। मेरे कहनेसे कोई दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन और ही वस्तु इन्हें दान करो, भूमि न दो।' तीनों ही लोकोंको ग्रहण कीजिये।
यह सुनकर राजा बलि हंस पड़े और धैर्यपूर्वक प तय सर्वेश्वर विष्णुने अपने द्वितीय पगको ऊपरकी गुरुसे बोले-'ब्रह्मन् ! मैंने सारा पुण्य भगवान् ओर फैलाया । वह नक्षत्र, ग्रह और देवलोकको लाँघता वासुदेवकी प्रसन्नताके ही लिये किया है। अतः यदि हुआ ब्रह्मलोकके अन्ततक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं, तब तो आज मैं धन्य हो न पड़ा । उस समय पितामह ब्रह्माने देवाधिदेव भगवान्के गया। उनके लिये तो आज मुझे यह परम सुखमय चक्र-कमलादि चिह्नोंसे अङ्कित चरणको देख हर्षयुक्त जीवनतक दे डालने में संकोच न होगा। अतः इन चित्तसे अपनेको धन्य माना और अपने कमण्डलुके ब्राह्मणदेवताको आज मैं तीनों लोकोंका भी निश्चय ही जलसे भक्तिपूर्वक उस चरणको घोया। श्रीविष्णुके दान कर दूंगा।' ऐसा कहकर राजा बलिने बड़ी भक्तिके प्रभावसे वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह तीर्थभूत