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उत्तरखण्ड ] .
. जरासन्धकी पराजय, कालयवनका वय और मुचुकुन्दकी मुक्ति .
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जरासन्धकी पराजय, द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
महादेवजी कहते हैं-पार्वती ! तदनन्तर ओर प्रस्थित हुए।* परम पराक्रमी बलदेवजीने भी वसुदेवजीने अपने दोनों पुत्रोका वेदोक्त विधिसे उपनयन मूसल और हल हाथमें ले द्वितीय रुद्रकी भांति संस्कार किया। उसमें गर्गजीने आचार्यका काम किया जरासन्धकी सेनाका संहार आरम्भ किया । दारुकने बड़ी था। विष्णुभक्त विद्वानोंने नहलाने आदिके द्वारा महाबली शीघ्रताके साथ रथको रणभूमिकी ओर बढ़ाया। मानो बलराम और श्रीकृष्णका संस्कारकार्य सम्पन्न किया। तृण, गुल्म और लताओंसे आच्छादित वनमें वायु तत्पश्चात् उन दोनों भाइयोंने गुरुवर सान्दीपनिके घर प्रज्वलित अग्रिको बढ़ा रही हो। जाकर उन महात्माको नमस्कार किया और उनसे वेद- उस समय जरासन्धके सैनिकोंने गदा, परिघ, शक्ति शास्त्रोंका अध्ययन करके गुरुदक्षिणाके रूपमें उनके मरे और मुहरोंके द्वारा उस रथको आच्छादित कर दिया, हुए पुत्रको लाकर दिया। इसके बाद उन महात्मा गुरुसे किन्तु बहुत-से तिनकों और सूखे काठोंको जैसे अत्यन्त आशीर्वाद ले उन्हें प्रणाम करके दोनों भाई मथुरापुरीमें प्रज्वलित अनि अपनी लपटोंसे शीघ्र ही भस्म कर चले आये। इधर श्रीकृष्णके द्वारा दुर्धर्ष वीर कंसके मारे डालती है, उसी प्रकार श्रीहरिने अपने चक्रसे उन सभी जानेका समाचार सुनकर उसके श्वशुर महाबली अस्त्र-शस्त्रोंको लीलापूर्वक काट डाला । तत्पश्चात् उन्होंने जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिये अनेक अक्षौहिणी शार्ङ्ग धनुष हाथमें लिया और उससे छूटे हुए अक्षय एवं सेनाओंके साथ आकर मथुरापुरीको घेर लिया। तीखे बाणोंके द्वारा सारी सेनाका संहार कर डाला । इसमें महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्णाने नगरसे बाहर उनको कुछ भी आयास नहीं जान पड़ा। इस प्रकार निकलकर हाथी-घोड़ोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको क्षणभरमें ही शत्रुकी सारी सेनाका विनाश करके यदुश्रेष्ठ देखा। तब भगवान् वासुदेवने अपने पूर्वकालीन सनातन भगवान् मधुसूदनने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया, सारथिका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सारथि जिसकी आवाज प्रलयकालीन वज्रकी भीषण गर्जनाको दारुक सुग्रीवपुष्पक नामक महान् रथ लिये आ पहुँचा। भी मात करती थी। शङ्खनाद सुनते ही शत्रुपक्षके उसमें दिव्य एवं सनातन अश्व जुते हुए थे। उस रथमें महाबली योद्धाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। वे शङ्ख, चक्र, गदा आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र मौजूद थे। घोड़े-हाथियोंके साथ ही गिरकर प्राणोंसे हाथ धो बैठे। ध्वजाके ऊपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित एवं फहराती हुई इस प्रकार रथ, हाथी और घोड़ेसहित सम्पूर्ण सेनाका पताका उस देवदुर्जय रथकी शोभा बढ़ा रही थी। केवल भगवान् श्रीकृष्णने ही सफाया कर डाला । अब श्रीहरिके सारथिने भूतलपर आकर भगवान् गोविन्दको उस सेनामें कोई वीर जीवित न बचा। तब सम्पूर्ण देवता प्रणाम किया और आयुधों तथा अश्वोसहित वह सुन्दर प्रसत्रचित्त होकर भगवानके ऊपर फूल बरसाने और उन्हें रथ सेवामें समर्पित कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े साधुवाद देने लगे। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार हर्षके साथ उस महान् रथके समीप आये और अपने बड़े उतारकर देवताओंके मुंहसे स्तुति सुनते हुए भगवान् भाई बलरामजीके साथ उसपर सवार हुए। उस समय धरणीधरकी उस युद्धके मुहानेपर बड़ी शोभा हुई । अपनी मरुदण उनकी स्तुति कर रहे थे। भगवान्ने चतुर्भुजरूप सेनाको मारी गयी देख खोटी बुद्धिवाला पराक्रमी वीर धारण करके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और तलवार ले जरासन्ध तुरंत ही बलरामजीके साथ लोहा लेनेके लिये ली और मस्तकपर किरीट धारण किया। दोनों कानोंमें आया । वे दोनों ही वीर युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे। कुण्डल तथा गलेमें वनमाला धारण करके वे संग्रामकी उनमें बड़ा भयङ्कर संग्राम हुआ। बलरामजीने हल
* चतुर्भुजवपुर्भूत्वा
चक्रगदासिभृत् । किरीटी कुण्डली सम्बी समामाभिमुखं ययौ ॥ (२७३ । १४)