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. अर्जयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
राजाओंमें श्रेष्ठ, महाबलवान् और सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ वर देनेके लिये आया हूँ।' सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी थे। उन्हींकी कुल-परम्परामें महातेजस्वी तथा बलवान् भगवान् विष्णुका दर्शन पाकर राजा दशरथ आनन्दमग्न राजा दशरथ हुए, जो महाराज अजके पुत्र, सत्यवादी, हो गये। उन्होंने पत्नीके साथ प्रसत्रचित्तसे भगवानके सुशील एवं पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने अपने चरणोंमें प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीमें कहापराक्रमसे समस्त भूमण्डलका पालन किया और सब 'भगवन् ! आप मेरे पुत्रभावको प्राप्त हों।' तब भगवान्ने राजाओंको अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। प्रसन्न होकर राजासे कहा-'नृपश्रेष्ठ ! मैं देवलोकका कोशलनरेशके एक सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या थी, जिसका हित, साधुपुरुषोकी रक्षा, राक्षसोका वध, लोगोंको मुक्ति नाम कौसल्या था। राजा दशरथने उसीके साथ विवाह प्रदान और धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हारे यहाँ किया। तदनन्तर मगधराजकुमारी सुमित्रा उनको द्वितीय अवतार लूंगा।' पत्नी हुई। केकयनरेशकी कन्या कैकेयी, जिसके नेत्र ऐसा कहकर श्रीहरिने' सोनेके पात्रमें रखा हुआ कमलदलके समान विशाल थे, महाराज दशरथकी दिव्य खीर, जो लक्ष्मीजीके हाथमें मौजूद था, राजाको तीसरी भार्या हुई। इन तीनों धर्मपत्नियोंके साथ दिया और स्वयं वहाँसे अन्तर्धान हो गये । राजा दशरथने धर्मपरायण होकर राजा दशरथ पृथ्वीका पालन करने वहाँ बड़ी रानी कौसल्या और छोटी रानी कैकेयीको लगे। अयोध्या नामकी नगरी, जो सरयूके तौरपर बसी उपस्थित देख इन्हीं दोनोंमें उस दिव्य खीरको वाँट दिया। हुई है, महाराजकी राजधानी थी। वह सब प्रकारके इतनेहीमें मझली रानी सुमित्रा भी पुत्रकी कामनासे रत्रोंसे भरी-पूरी और धन-धान्यसे सम्पन्न थी। वह राजाके समीप आयीं । उन्हें देख कौसल्या और कैकेयीने सोनेकी चहारदीवारीसे घिरी हुई और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों तुरंत ही अपने-अपने खोरमेंसे आधा-आधा निकालकर (नगरद्वारों) से सुशोभित थी। धर्मात्मा राजा दशरथ उनको दे दिया। उस दिव्य खीरको खाकर तीनों ही अनेक मुनिवरों और अपने पुरोहित महात्मा वसिष्ठजीके रानियाँ गर्भवती हुई। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो साथ उस पुरीमें निवास करते थे। उन्होंने वहाँ अकण्टक रही थी। उन्हें कई बार सपनेमें शङ्ख, चक्र और गदा राज्य किया। वहाँ भगवान् पुरुषोत्तम अवतार धारण लिये तथा पीताम्बर पहने देवेश्वर भगवान् विष्णु दर्शन करनेवाले थे, अतएव वह पवित्र नगरी अयोध्या दिया करते थे। तदनन्तर समयानुसार जब चैतका कहलायी। परमात्माके उस नगरका नाम भी परम मनोरम मधुमास आया तो शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको कल्याणमय है। जहाँ भगवान् विष्णु विराजते हैं, वही पुनर्वसु नक्षत्रमें दोपहरके समय रानी कौसल्याने पुत्रको स्थान परमपद हो जाता है। वहाँ सब कोका बन्धन जन्म दिया। उस समय उत्तम लग्न था और सभी ग्रह काटनेवाला मोक्ष सुलभ होता है।
शुभ स्थानोंमें स्थित थे। कौसल्याके पुत्ररूपमें सम्पूर्ण . राजा दशरथने समस्त भूमण्डलका पालन करते हुए लोकोंके स्वामी साक्षात् श्रीहरि ही अवतीर्ण हुए थे, जो पुत्रकामनासे वैष्णव-यागके द्वारा श्रीहरिका यजन किया। योगियोंके ध्येय, सनातन प्रभु, सम्पूर्ण उपनिषदोंके सबको वर देनेवाले सर्वव्यापक लक्ष्मीपति भगवान् प्रतिपाद्य तत्त्व, अनन्त, संसारकी सृष्टि, रक्षा और विष्णु उक्त यज्ञद्वारा राजा दशरथसे पूजित होनेपर वहाँ प्रलयके हेतु. रोग-शोकसे रहित, सब प्राणियोंको शरण अग्रिकुण्डमें प्रकट हुए । जाम्बूनदके समान उनकी श्याम देनेवाले और सर्वभूतस्वरूप परमेश्वर हैं। जगदीश्वरका कान्ति थी। वे हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा लिये हुए अवतार होते ही आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियां बजने थे। उनके शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था। वाम लगीं। श्रेष्ठ देवताओने फूल बरसाये। प्रजापति आदि अङ्कमें भगवती लक्ष्मीजीके साथ वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हुए देवगण विमानपर बैठकर मुनियोंके साथ हर्षगद्गद हो भक्तवत्सल परमेश्वर राजा दशरथसे बोले-'राजन् ! मैं स्तुति करने लगे।
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