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उत्तरखण्ड ]
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• भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक.
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असुर घोड़ेका रूप धारण किये व्रजमें आया। वह भी श्रीकृष्णको मारनेके ही उद्देश्यसे चला था। गौओके रमणीय व्रजमें पहुँचकर वह जोर-जोरसे हिनहिनाने लगा। उसकी आवाज तीनों लोकोंमें गूँज उठी। देवता भयभीत हो गये। उन्हें प्रलयकालका-सा सन्देह होने लगा । व्रजके रहनेवाले समस्त गोप अचेत हो गये। गोपियाँ भी व्याकुल हो उठीं। फिर होशमें आनेपर सब लोग चारों ओर भाग चले। गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गयीं और 'बचाओ, बचाओ' की रट लगाने लगीं । भक्तवत्सल भगवान्ने आश्वासन देते हुए कहा - 'डरो मत, डरो मत। फिर उन्होंने तुरंत ही उस दैत्यके मस्तकपर एक मुक्का जड़ दिया। मार पड़ते ही दैत्यके सारे दाँत गिर गये और आँखें बाहर निकल आयीं। वह बड़े जोर-जोरसे चिल्लाने लगा। केशी सहसा पृथ्वीपर गिरा और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। केशीको मारा गया देख आकाशमें खड़े हुए देवता साधु-साधु कहने और फूलोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार शैशवकालमें श्रीहरिने बड़े-बड़े बलाभिमानी दैत्योंका वध किया। वे बलरामजीके साथ व्रजमें सदा प्रसन्न रहा करते थे। उन दिनों वृन्दावनकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। फलों और फूलोंके कारण उसकी बड़ी शोभा होती थी। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ मुरलीकी मधुर तान छेड़ते हुए निवास करते थे। एक समय शरत्काल आनेपर नन्द आदि गोपने इन्द्रकी पूजाका महान् उत्सव आरम्भ किया; किन्तु भगवान् गोविन्दने -★
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! तदनन्तर एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारदजी मथुरामें कंसके पास गये। राजा कंसने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्हें सुन्दर आसनपर बिठाया। नारदजीने कंससे भगवान् विष्णुकी सारी चेष्टाएँ कहीं। देवताओंका उद्योग करना, भगवान् केशवका अवतार लेना, वसुदेवका अपने पुत्रको व्रजमें रख आना, राक्षसोंका मारा जाना, नागराज कालियका
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इन्द्रयज्ञके उत्सवको बंद करके गिरिराज गोवर्धनके पूजनका उत्सव कराया। इससे इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने नन्द गोपके व्रजमें लगातार सात रातोंतक बड़ी भारी वर्षा की। तब भगवान् जनार्दनने गिरिराज गोवर्धनको उखाड़ लिया और गोप, गोपियों तथा गौओंकी रक्षाके लिये उसे अनायास ही उनकी भाँति धारण कर लिया। पर्वतकी छायाके नीचे आकर गोप और गोपियाँ बड़े सुखसे रहने लगीं, मानो वे किसी महलके भीतर बैठी हों। यह देख सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रको बड़ा भय हुआ। उन्होंने बड़ी घबराहटके साथ उस वर्षाको बंद कराया और स्वयं वे नन्दके व्रजमें गये । वर्षा बंद होनेपर भगवान् श्रीकृष्णने उस महापर्वतको पहलेकी भाँति यथास्थान रख दिया। नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप गोविन्दकी सराहना करते हुए बहुत विस्मित हुए। इतनेमें ही इन्द्रने आकर भगवान् मधुसूदनको प्रणाम किया और हाथ जोड़ हर्षगद्गद वाणीमें उनको स्तुति की। स्तुतिके पश्चात् सब देवताओंके स्वामी इन्द्रने अमृतमय जलसे भगवान् गोविन्दका अभिषेक किया और दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषणोंसे उनकी पूजा की। इसके बाद वे स्वर्गलोकमें गये। उस समय बड़े-बूढ़े गोपों और गोपियोंने भी इन्द्रका दर्शन किया तथा इन्द्रसे सम्मानित होनेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्ण नन्दके रमणीय व्रजमें रहकर गौओं और बछड़ोंका पालन करने लगे।
भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
यमुनाके कुण्डसे बाहर निकाला जाना, गोवर्धन धारण करना और इन्द्रका भगवान् से मिलना आदि सभी मुख्य-मुख्य घटनाओंको उन्होंने कंससे निवेदन किया। यह सब सुनकर राक्षस कंसने नारदजीका बड़ा आदर किया। उसके बाद वे ब्रह्मलोकमें चल गये। इधर कंसके मनमें बड़ा उद्वेग हुआ। वह मन्त्रियोंके साथ बैठकर मृत्युसे बचनेके विषयमें परामर्श करने लगा ।