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• अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
उसके मन्त्रियोंमे अक्रूर सबसे अधिक बुद्धिमान् और गौरवर्णवाले नीलाम्बरधारी बलरामजीपर पड़ी, जो धर्मानुरागी थे। महाबली दानवराज कसने अक्रूरको मोतियोंकी मालासे विभूषित होकर शरत्कालके पूर्ण आज्ञा दी।
चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। अक्रूरजीने उनको भी कंस बोला-यदुश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता प्रणाम किया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्णने भी बड़े मेरे भयसे पीड़ित हो श्रीविष्णुको शरणमें गये थे। हर्षके साथ उठकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरका पूजन किया और भूतभावन भगवान् मधुसूदन उन देवताओंको अभयदान उनको साथ लेकर वे दोनों भाई घरपर आये। यदुश्रेष्ठ दे मुझे मारनेके लिये देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं। अक्रूरको आया देख महातेजस्वी नन्दगोपने निकट जाकर वसुदेव भी ऐसा दुष्टात्मा है कि मुझे धोखा देकर रातमें उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बिठाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ वह अपने पुत्रको दुरात्मा नन्दके घरमें रख आया। वह विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, वस्त्र तथा दिव्य आभूषण आदि बालक बचपनसे ही ऐसा दुर्धर्ष है कि बड़े-बड़े असुर निवेदन करके भक्तिभावसे उनका पूजन किया। अक्कूरजीने उसके हाथसे मारे गये। यदि ऐसी ही उसकी प्रगति रही भी बलराम, श्रीकृष्ण, नन्दजी तथा यशोदाको वस्त्र और तो एक दिन वह मुझे भी मारनेके लिये तैयार हो आभूषण भेट किये। फिर कुशल पूछकर शान्तभावसे वे जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि व्रजमें उसे इन्द्र आदि कुशके आसनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् राजकार्यके देवता तथा समस्त असुर भी नहीं मार सकते; अतः मुझे विषयमें प्रश्न होनेपर बुद्धिमान् अक्रूरने इस प्रकार कहना उसको यहाँ बुलवाकर किसी विशेष उपायसे ही मारना आरम्भ किया। चाहिये। मतवाले हाथी, बड़े-बड़े पहलवान तथा श्रेष्ठ, अक्रूर बोले-नन्दरायजी ! ये महातेजस्वी घोड़े आदिसे उसका वध कराना चाहिये। जिस-किसी श्रीकृष्ण साक्षात् अविनाशी भगवान् नारायण हैं। उपायसे सम्भव हो, उसे यहीं बुलाकर मारा जा सकता देवताओंका हित, साधु पुरुषोंको रक्षा, पृथ्वीके भारका है, अन्यत्र नहीं। इसलिये तुम गौओंके व्रजमें नाश, धर्मकी स्थापना तथा कंस आदि सम्पूर्ण दैत्योंका जाकर बलराम, श्रीकृष्ण तथा नन्द आदि सम्पूर्ण नाश करनेके लिये इनका अवतार हुआ है। उक्त कार्योंके ग्वालोको धनुष-यज्ञका मेला देखनेके बहाने यहाँ लिये समस्त देवताओं तथा महात्मा मुनियोंने इनसे बुला ले आओ।'
प्रार्थना की थी। उसीके अनुसार ये वर्षाकालमें आधी 'बहुत अच्छा' कहकर परम पराक्रमी यदुश्रेष्ठ रातके समय देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। उस समय अक्रूर रथपर आरूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्णके वसुदेवजीने कंसके भयसे रातमें ही अपने पुत्र भगवान् दर्शनके लिये उत्सुक होकर गौओंके रमणीय व्रजमें श्रीहरिको तुम्हारे घरमें पहुँचा दिया। उसी समय गये। अक्रूरजी महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने यशस्विनी यशोदाको भी मायाके अंशसे एक सुन्दरी अत्यन्त विनीत भावसे गौओंके बीचमें खड़े हुए भगवान् कन्या उत्पन्न हुई थी। उसीने सम्पूर्ण व्रजको नोंदमे बेसुध श्रीकृष्णका दर्शन किया। गोप-कन्याओंसे घिरे हुए कर दिया था। यशोदाजी भी मूर्छितावस्थामें पड़ी थीं। श्रीहरिको देखकर अक्रूरजीका सारा शरीर रोमाशित हो वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाको शव्यापर सुला उठा। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने दिया और स्वयं उस कन्याको लेकर वे मथुराकी ओर रथसे उतरकर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। वे बड़े हर्षके चल दिये। कन्याको देवकीकी शय्यापर रखकर ये साथ भगवान् गोपालके समीप गये और वज्र तथा चक्र प्रसवघरसे याहर निकल गये। देवकीकी शय्यापर सोयी आदि चिह्नोंसे सुशोभित लाल कमलसदृश उनके मनोहर हुई कन्या शीघ्र ही रोने लगी। उसका जन्म सुनकर चरणोंमें मस्तक रखकर उन्होंने बारंबार नमस्कार किया। दानव कंस सहसा आ पहुँचा और उसने कन्याको लेकर तत्पश्चात् उनकी दृष्टि कैलासशिखरके समान घुमाते हुए पत्थरपर पटक दिया। परन्तु वह कन्या