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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
करतूत ब्रह्माजीकी ही है, उन सनातन प्रभुने वैसे ही बालक और बछड़े बना लिये वही रंग और वही रूप, कुछ भी अन्तर नहीं था। शामको जब वे लौटकर व्रजमें गये तो गौओं और माताओंने अपने-अपने बछड़ों और बालकों को पाकर उनके साथ पूर्ववत् बर्ताव किया। इस प्रकार एक वर्षका समय व्यतीत हो गया। तब प्रजापतिने उन बछड़ों और बालकोंको पुनः ले जाकर भगवान्को समर्पित किया और हाथ जोड़ विनीतभावसे प्रणाम करके भयभीत होकर कहा- -'नाथ! मैंने इन बछड़ोंका अपहरण करके आपका महान् अपराध किया है। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। यो कहकर पुनः श्रीहरिके चरणोंमें बारंबार प्रणाम किया और बछड़ोंको उन्हें सौंपकर पुनः अपने लोकमें चले गये। महातपस्वी ब्रह्माजी भगवान्के उस बालरूपको हृदयमें धारण करके देवताओंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे।
इसके बाद श्रीकृष्ण बछड़ोंके साथ नन्दके गोकुलमें चले गये। इसके कुछ दिनोंके पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ग्वालोंको साथ लेकर यमुनाके कुण्डमें गये। वहाँ बड़ा विषैला और बलवान् नागराज कालिय रहता था। उसके हजार फन थे; किन्तु भगवान् ने अपने एक ही पैरसे उसके हजारों फर्नोको कुचल डाला और जब वह प्राणसङ्कटमें पड़ गया तो होशमें आनेपर उसने भगवान्की शरण ली। उसका सारा विष तो निकल ही गया था, शरणमें आनेपर भगवान्ने उसकी रक्षा की। वह गरुड़के भयसे इस कुण्डमें आकर रहता था; इसलिये भगवान्ने उसके मस्तकपर अपने चरणचिह्न स्थापित करके उसको कालिन्दीके कुण्डसे निकाल दिया। उसने अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ तुरंत ही उस कुण्डको छोड़ दिया और भगवान् गोविन्दको नमस्कार करके अन्यत्रकी राह ली। उसके किनारेके जो वृक्ष कालियके विषसे दग्ध हो गये थे, वे श्रीकृष्णको कृपादृष्टि पड़ते ही फलने-फूलने लगे ।
तत्पश्चात् समयानुसार भगवान्ने कुमारावस्थामें पदार्पण किया। अब वे सर्वदेवमय प्रभु गौओंकी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चरवाही करने लगे। वे अपने समान अवस्थावाले ग्वालोंको साथ ले मनोहर वृन्दावनमें बलरामजी के साथ विचरा करते थे। वहाँ एक अत्यन्त भयानक असुर था, जो अजगर साँपके रूपमें रहा करता था। वह विशालकाय दैत्य मेरुपर्वतके समान भारी था; परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उसको भी मौतके नाट उतार दिया। इसके बाद वे धेनुकासुरके वनमें गये, जो ताड़के वृक्षोंसे बहुत सघन प्रतीत होता था। उसके भीतर धेनुक नामक एक पर्वताकार दानव रहता था। जिसको परास्त करना बहुत ही कठिन था। वह सदा गदहेके रूपमें रहा करता था। भगवान्ने उसके दोनों पैर पकड़कर ऊपर फेंक दिया और एक ताड़के वृक्षसे उसको मार डाला। फिर तो वनमें वे ग्वाले खेलते फिरे। उस वनसे निकलनेपर वे तुरंत ही भाण्डीर वटके पास आ गये और बलराम तथा श्रीकृष्णके साथ बालोचित खेल खेलने लगे। उस समय प्रलम्ब नामक राक्षस गोपका रूप धारण करके वहाँ आया और बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ा आकाशकी ओर उड़ चला। तब बलरामजीने उसे राक्षस समझकर बड़े रोषके साथ मुक्केसे मस्तकपर मारा; उस प्रहारसे राक्षसका शरीर तिलमिला उठा और वह अपने वास्तविक रूपमें आकर बड़े भयंकर स्वरमें चीत्कार करने लगा। उसका मस्तक और शरीर फट गया और वह खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर गिरकर मर गया। इसके बाद एक दिन सन्ध्याकालमें अरिष्ट नामक दैत्य बैलका आकार धारण किये व्रजमें आया और श्रीकृष्णको मारनेके लिये बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसे देख समस्त गोप भयसे पीडित हो इधर-उधर भाग गये। श्रीकृष्णने उस भयंकर दैत्यको आया देख एक ताड़का वृक्ष उखाड़ लिया और उसके दोनों सींगोंके बीच दे मारा। उसके सींग टूट गये और मस्तक फट गया। वह रक्त वमन करता हुआ बड़े वेगसे गिरा और जोर-जोर से चीत्कार करके मर गया। इस तरह उस महाकाय दैत्यको मारकर भगवान्ने ग्वालबालोंको बुलाया और फिर सब लोग वहीं निवास करने लगे।
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद केशी नामक महान्