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. अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पयपुराण
चिकने हाथोंसे इनकी सेवा करती हैं। ये चरण परम मन्त्रका जप आरम्भ किया। उस समय उन्हें श्रीवलराम उत्तम सुखस्वरूप हैं। इस प्रकार भगवान्की सेवा में लगे तथा श्रीकृष्ण दोनों ही जलके भीतर दिखायी दिये। उन्हें हुए अक्रूरजीकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। देखकर अक्रूरजौको बड़ा विस्मय हुआ। तब उन्होंने उस समय वे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। तदनन्तर उठकर रथकी ओर देखा; किन्तु वहाँ भी वे दोनों निर्मल प्रभात होनेपर देवगण आकाशमें खड़े हो महाबली वीर बैठे दृष्टिगोचर हुए। तब पुनः जलमें भगवानकी स्तुति करने लगे। तब भगवान् शयनसे उठे। डुबकी लगाकर वे युगल-मन्त्रका जप करने लगे। उस उठकर विधिपूर्वक आचमन किया। फिर परम बुद्धिमान् समय उन्हें क्षीरसागरमें शेषनागको शय्यापर बैठे हुए बलरामजीके साथ जाकर माताके चरणोंमें नमस्कार लक्ष्मीसहित श्रीहरिका दर्शन हुआ। सनकादि मुनि किया और मथुरा जानेको इच्छा प्रकट की। यशोदाजी उनकी स्तुति कर रहे थे और सम्पूर्ण देवता सेवामें खड़े दुःख और हर्षमें डूबी हुई थीं। उन्होंने दोनों पुत्रोंको थे। इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वरको देखकर यदुश्रेष्ठ उठाकर बड़े प्रेमके साथ छातीसे लगा लिया। उस समय अक्रूरने उनका स्तवन किया। स्तुति करनेके पश्चात् उनके आँसुओंको धारा बह रही थी। उन्होंने दोनों सुगन्धित कमल-पुष्पोंसे भगवान्का पूजन किया और महावीर पुत्रोको आशीर्वाद दिया और बार-बार हृदयसे अपनेको कृतकृत्य मानते हुए वे यमुनाजलसे बलराम लगाकर विदा किया। अक्रूरने भी हाथ जोड़कर' और श्रीकृष्णके समीप आये। वहाँ आकर अक्रूरजीने यशोदाजीके चरणोंमे प्रणाम किया और कहा- उन दोनों भाइयोंको भी प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णने 'महाभागे ! अब मैं जाऊँगा। मुझपर कृपा करो। ये उन्हें आश्चर्यमग्न और विनीतभावसे खड़ा देख-पूछामहाबाहु श्रीकृष्ण महाबली कंसको मारकर सम्पूर्ण 'कहिये अक्रूरजी ! आपने जलमें कौन-सी आश्चर्यकी जगत्के राजा होंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। बात देखी है?' यह सुनकर अक्रूरजीने महातेजस्वी अतः देवि ! तुम शोक छोड़कर सुखी होओ। श्रीकृष्णसे कहा-'प्रभो! आप सर्वत्र व्यापक हैं!
ऐसा कहकर अक्रूरजी नन्दरानीसे विदा ले बलराम आपकी महिमासे क्या आचर्यकी बात हो सकती है। और श्रीकृष्णके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हुए और तीव्र हषीकेश ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीका तो स्वरूप है।' गतिसे मथुराकी ओर चले। उनके पीछे नन्द आदि इस प्रकार स्तुति करके जगदीश्वर गोविन्दको प्रणाम कर बड़े-बूढ़े गोप भांति-भाँतिके फल तथा बहुत-से दही-घी अक्रूरजी उन दोनों भाइयोंके साथ पुनः दिव्य रथपर आदि लेकर गये। श्रीहरिको रथपर बैठकर ब्रजसे जाते आरूढ़ हो तुरंत ही देवनिर्मित मथुरापुरीमें जा पहुंचे। देख समस्त गोपाङ्गनाएँ भी उनके पीछे-पीछे चलीं। वहाँ नगरद्वारपर बलराम और श्रीकृष्णको बिठाकर वे उनका हृदय शोकसे सन्तप्त हो रहा था। वे 'हा कृष्ण ! अन्तःपुरमें गये और राजा कंससे उनके आगमनका हा कृष्ण ! हा गोविन्द !' कहकर बारंबार रोती और समाचार सुनाकर उसके द्वारा सम्मानित हो पुनः अपने विलाप करती थीं। श्रीहरिने उन सबको समझा-बुझाकर घरको चले गये। लौटाया। उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे। वे दीन भावसे । तदनन्तर सन्ध्याके समय महाबली बलराम और रोती हुए खड़ी रहीं। इसके बाद अक्रूरजीने अपने दिव्य श्रीकृष्ण एक-दूसरेका हाथ पकड़े मथुरापुरीके भीतर रथको अजसे मथुराकी ओर बढ़ाया। शीघ्र ही यमुनाके गये। वे दोनों राजमार्गसे जा रहे थे। इतनेहीमे उनकी पार होकर उन्होंने रथको किनारे खड़ा कर दिया और दृष्टि कपड़ा रंगनेवाले एक रैंगरेजपर पड़ी, जो दिव्य वस्त्र स्वयं उससे उतरकर वे स्नान तथा अन्य आवश्यक कृत्य लिये राजभवनकी ओर जा रहा था। बलरामसहित परम करनेकी तैयारी करने लगे। भक्तप्रवर अक्रूरने यमुनाके पराक्रमी श्रीकृष्णने उन वस्त्रोको अपने लिये माँगा; किन्तु उत्तम जलमें जाकर डुबकी लगायी और अघमर्षण रंगरेजने वे वस्त्र उन्हें नहीं दिये। इतना ही नहीं, उसने