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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
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भागमें सुन्दर सिंहासनपर भगवान् विराजमान हुए। उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। श्रीरामचन्द्रजीके पीछे जो वानर, भालु और मनुष्य आये थे, उन्होंने सरयूके जलका स्पर्श करते ही सुखपूर्वक प्राण त्याग दिये और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे सबने दिव्य रूप धारण कर लिया। उनके अङ्गोंमें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। वे दिव्य मङ्गलमय कान्तिसे सम्पन्न थे । असंख्य देहधारियोंसे घिरे हुए राजीवलोचन भगवान् श्रीराम उस विमानपर आरूढ़ हुए। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि और महात्माओंसे पूजित होकर वे
अपने दिव्य, अविनाशी एवं सनातन धाममें चले गये। पार्वती! जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रके एक या आधे श्लोकको पढ़ता अथवा सुनता या भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, वह कोटि जन्मोंके उपार्जित ज्ञाताज्ञात पापसे मुक्त हो स्त्री, पुत्र एवं बन्धु बान्धवोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य विष्णुलोकमें अनायास ही चला जाता है। देवि! यह मैंने तुमसे श्रीरामचन्द्रजीके महान् चरित्रका वर्णन किया है। तुम्हारी प्रेरणासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीकी लीलाओंके कीर्तनका शुभ अवसर प्राप्त हुआ, इससे मैं अपनेको धन्य मानता हूँ। ★ श्रीकृष्णावतारकी कथा - व्रजकी लीलाओंका प्रसङ्ग
पार्वतीजीने कहा - महेश्वर ! आपने श्रीरघुनाथजीके उत्तम चरित्रका अच्छी तरह वर्णन किया। देवेश्वर! आपके प्रसादसे इस उत्तम कथाको श्रवण करके मैं धन्य हो गयी। अब मुझे भगवान् वासुदेवके महान् चरित्रोंको सुननेकी इच्छा हो रही है, कृपया कहिये ।
श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! सबके हृदयमें निवास करनेवाले परमात्मा श्रीकृष्णकी लीलाएँ मनुष्योंको मनोवाञ्छित फल देनेवाली हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। यदुवंशमें वसुदेव नामक श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न हुए, जो देवमीढके पुत्र और सब धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने मथुरामें उग्रसेनकी पुत्री * देवकीसे विधिपूर्वक विवाह किया, जो देवाङ्गनाओंके समान सुन्दरी थी। उग्रसेनके एक कंस नामक पुत्र था, जो महाबलवान् और शूरवीर था जब वधू और वर रथपर बैठकर विदा होने लगे, उस समय कंस स्नेहवश सारथि बनकर उनका रथ हाँकने लगा। इसी समय गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी सुनायी पड़ी. - 'कंस ! इस देवकीका आठवाँ बालक तुम्हारे प्राण लेगा ।'
यह सुनकर कंस अपनी बहिनको मार डालनेके
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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लिये तैयार हो गया। उसे क्रोधमें भरा देख बुद्धिमान् वसुदेवजीने कहा- 'राजन्! यह तुम्हारी बहिन है, तुम्हें धर्मतः इसका वध नहीं करना चाहिये। इसके गर्भसे जो बालक उत्पन्न हों, उन्हींको मार डालना।' 'अच्छा, ऐसा ही हो' यो कहकर कंसने वसुदेव और देवकीको अपने सुन्दर महलमें ही रोक लिया और उनके लिये सब प्रकारके सुखभोगकी व्यवस्था कर दी। पार्वती ! इसी बीचमें समस्त लोकोंको धारण करनेवाली पृथ्वी भारी भारसे पीड़ित होकर सहसा लोकनाथ ब्रह्माजीके पास गयी और गम्भीर वाणीमें बोली- 'प्रभो! अब मुझमें इन लोकोंको धारण करनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरे ऊपर पाप कर्म करनेवाले राक्षस निवास करते हैं। वे बड़े बलवान् हैं, अतः सम्पूर्ण जगत् के धर्मोका विध्वंस करते हैं। पापसे मोहित हुए समस्त मानव इस समय अधर्मपरायण हो रहे हैं। इस संसारमें अब थोड़ा-सा भी धर्म कहीं दिखायी नहीं देता। देव! मैं सत्य -: - शौचयुक्त धर्मके ही बलसे टिकी हुई थी। अतः अधर्मपरायण विश्वको धारण करनेमें मैं असमर्थ हो रही हूँ।'
यों कहकर पृथ्वी वहीं अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर ब्रह्मा और शिव आदि समस्त देवता तथा महातपस्वी
* अन्य पुराणोंमें देवकीको उग्रसेनके भाई देवककी पुत्री बताया गया है। कल्पभेदसे ऐसा होना सम्भव है।